कल मैं एकाएक अपने एक पुराने मित्र से रूबरू हो गया, और कमाल की बात थी की पहले पहल हम एक दूसरे को पहचान ही नहीं सके. वो बहुत ही बन-ठन के बैठे थे और मैं वही लोअर,टीशर्ट और चप्पल में. सोचकर ही अजीब लग रहा था की क्या ये वही है? मगर फिर शायद आवाज़ों का वो फेर की कोई भी एक दूसरे को पहचान ले. बात शुरू हुई तो मैं थोड़ा हिचकिचाया की साहब इतने बन-ठन के बैठे है, भला मैं उनको क्या कहूँ?
मगर ये सब सोचते हुए मेरे मन में ये सवाल आया की देखिए ना, कल तलक ये साहब क्या थे, आज क्या बन गए. ऐसा सोचते हुए कहीं भी कोई बुरी सोच नहीं थी, मगर मैं ये सोच रहा था की इंसान हर दिन तरक्की करता है, और ऐसा होना भी चाहिए, क्यूंकि हमारे लिए ज़रूरी है आगे बढ़ना,बेहतर होना, और ज़ाहिर सी बात है हमसब यहीं चाहते भी है, क्यूंकि कोई नहीं है, जो एक जैसा ही बनकर रहे, क्यूंकि यदि ऐसा है, तो यानी की हम एक मुर्दा की तरह है, जिसमे कहने के लिए जान तो है, मगर विकास नहीं.
रुका हुआ पानी भी बदबू मारने लगता है और अगर हम सब यदि उन्नति नहीं करते तो कहीं ना कहीं हम भी बदबू ही मारते है, क्यूंकि हम एक तरह से मुर्दा हो जाते है.
उम्मीद है की हम सब आगे बढ़ेंगे
मगर ये सब सोचते हुए मेरे मन में ये सवाल आया की देखिए ना, कल तलक ये साहब क्या थे, आज क्या बन गए. ऐसा सोचते हुए कहीं भी कोई बुरी सोच नहीं थी, मगर मैं ये सोच रहा था की इंसान हर दिन तरक्की करता है, और ऐसा होना भी चाहिए, क्यूंकि हमारे लिए ज़रूरी है आगे बढ़ना,बेहतर होना, और ज़ाहिर सी बात है हमसब यहीं चाहते भी है, क्यूंकि कोई नहीं है, जो एक जैसा ही बनकर रहे, क्यूंकि यदि ऐसा है, तो यानी की हम एक मुर्दा की तरह है, जिसमे कहने के लिए जान तो है, मगर विकास नहीं.
रुका हुआ पानी भी बदबू मारने लगता है और अगर हम सब यदि उन्नति नहीं करते तो कहीं ना कहीं हम भी बदबू ही मारते है, क्यूंकि हम एक तरह से मुर्दा हो जाते है.
उम्मीद है की हम सब आगे बढ़ेंगे
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