Friday 22 August 2014

कब क्या और क्यों लिखूं

आज वाकई में कुछ लिखने की अवस्था में नहीं हूँ. ऐसा नहीं है की लिखना नहीं चाहता या सोच और भावनाओ के रूप में कुछ नहीं है लिखने को, मगर सोचता हूँ की कुछ बेहतर सोचने की अवस्था में हूँ, इसलिए कितना और क्या लिख पाऊँगा.

मगर लिखना भी ज़रूरी है, और हो भी क्यों ना, आख़िरकार हम एक दिन में बहुत कुछ करते और महसूस भी करते है, बस वही तो लिखना होता है और इसमें भी कितना मज़ा है की आप कुछ भी लिखे आप पूरी शिद्दत से लिख सकते है, और यदि आप उसको सही से लिख सके तो लोग उसको पढ़ेंगे भी, और क्यों  नहीं पढ़ेंगे? आप यदि खुद को सही से व्यक्त कर सकेंगे तो चाहे वो दुनिया का कोई भी स्थान हो इन्सान आपको ज़रूर सुनना, देखना और पढ़ना पसंद करेगा.

वैसे भी ये विधा तो आपके अंदर होती है, अब आप उसको कितना बेहतर बना सकते है, ये आपपर निर्भर है, वरना आप कुछ लिखे और बोले, और लोग आपको सुने ये ज़रूरी तो नहीं. वाह इस बात पर नुसरत साहब की एक कव्वाली,'मस्त नज़रों से अल्लाह बचाए' से ये पंक्तियाँ याद आ गई,

'उम्र जलवो में बसर हो ये ज़रूरी तो नहीं,
हर शबे गम की सहर हो ये ज़रूरी तो नहीं,
नींद तो दर्द के बिस्तर पे भी आ सकती है,
उनकी आगोश में सर हो ये ज़रूरी तो नहीं,
शैख़ करता है जो मस्जिद में खुद को सजदे,
उसके सजदों में असर हो ये ज़रूरी तो नहीं'


वाकई बहुत ही खूबसूरत पंक्तियाँ है, इतनी की आप और सुने बिना रह ही नहीं सकते, पर खैर छोड़िये, आज तो बस यहीं कहना था की मैं कुछ लिखना नहीं चाहता, मगर देखिये ना कुछ ना कहने की कोशिश में कितना कुछ कह गया, शायद ये ब्लॉग लिखने का असर ही है, की एक छोटी सी बात को समझाने के लिए भी इतना बड़ा ब्लॉग लिख दिया.

इसको पूरा पढ़ने के लिए आपका धन्यवाद.

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