Wednesday 20 August 2014

हमारी मानसिकता

आज के इस ब्लॉग को लिखने के लिए एक प्रेरणा बच्चन साहब के आज के ब्लॉग ने की है. वैसे भी वो तो हमारे पितामह है. आप सोच रहे होंगे मैंने उन्हें अपना पितामह क्यों कहा, है ना? क्यों ना कहूँ साहब, आखिरकार वो लगातार ब्लॉग लिखते है, प्रतिदिन, किसी भी परिस्थिति में, और मेरे लगातार ब्लॉग लिखने की प्रेरणा भी कहीं ना कहीं वो ही थे. खैर पहले पहल मुझे इसकी उम्मीद नहीं थी, मगर आज ऐसा कर पा रहा हूँ, और खुश हूँ.

हाँ तो हम बात कर रहे थे मानसिकता की, वो मानसिकता जो की हमारे पैदा होने के साथ ही हम में डाल दी जाती है, ठीक उसी तरह जैसे की हमें एक दवाई पिलाई जाती है, धीरे धीरे, छोटी छोटी मात्रा में, मगर उस और इस दवाई में फर्क होता है. वो दवाई कड़वी होती है, मगर असर मीठा क्यूंकि वो हमें उस बीमारी से निजात दिलाती है जो हमारे अंदर घर कर गयी होती है, वहीँ ये दवाई तो बाहर से मीठी होती है, और इसी लिए हम उसको पी लेते है, जो अंदर जाते ही कड़वा असर डालती है. मगर करें भी तो क्या करें साहब हम उस वक़्त बेहद छोटे होते है, बिलकुल उस मिटटी की तरह जिसको जैसे भी चाहो मोड़ दो, चाहे उससे घड़ा बनाओ या गमला.

वैसे देखा जाए तो इन दो वस्तुओ से भी ये मानसिकता बयान होती है, जहाँ एक ओर गमला लगातार नए पानी के साथ अपना लगातार विकास करता है, और अपने अंदर लगे पौधे का भी, वहीँ घड़े में एक बार जो पानी डाल दिया, जब तलक वो या तो बदल नहीं दिया जाता या ख़त्म नहीं होता, वो पानी वैसे ही उसमे पड़ा रहता है, तो जहाँ घड़ा एक बंद सोच का प्रतिनिधित्व कर रहा है, वही गमला बदलती सोच का. घड़ा भी तब ही अपनी सोच से निवृत होता है जब या तो कोई उस सोच को ख़त्म कर दे, या उसको बदल दे, एक नयी सोच के साथ. देखिए ना, घड़े में पड़े पड़े पानी भी खराब हो जाता है(हालाँकि कई लोग इससे सहमत नहीं होंगे, मगर ये सच्चाई है), वहीँ दूसरी ओर गमले को मिलता पानी हर दिन नया होता है, मतलब नई सोच लगातार उसे मिलती है, और उसकी ख़ूबसूरती ऐसी होती है, की वो अपने साथ साथ अपने अंदर रखे गए एक पौधे को भी हरा भरा रख लेता है.

ये निर्णय आपको करना है की आप घड़ा बनेंगे या गमला.

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