Sunday 31 August 2014

बच्चों की दुनिया ही अलग होती है

कल शाम को ऑफिस से वापस आते ही एक मित्र ने एक चाय की दुकान पर निमंत्रण दिया. उनका आग्रह इतना प्रबल था की उसको ठुकरा पाना संभव ना था.सो मैं वहां पहुँचा,तो पहले चाय, फिर एक समोसा और फिर १०० ग्राम जलेबी. वाकई में अब इतना बहार के खाने की आदत तो रही नहीं, सो मैंने कोशिश की उनके आग्रह को नकारने की, मगर वो इतना प्रबल था साहब की ऐसी सम्भावनाएँ ही नहीं थी. मरता क्या ना करता,मैंने मजबूरी में उसको खाने की कोशिश की.

खैर कमाल की बात ये हुई की उसी वक़्त दो बच्चे आए, जिन्हे कुछ सामान लेना था, और उनकी बातें ऐसी थी की मैं दुनिया को भूलकर बस उनकी बातें सुनने लगा. एक कहता की भईया मुझे २ समोसे दे दो, तो दूसरा कहता की दो समोसे लेना या पैसे नहीं लाया, कुछ ठीक वैसे ही जैसे की चिढ़ाने के लिए कोई कहता है. मेरी हँसी छूट गई. फिर उनकी बातचीत स्कूल की पढाई के बढ़ते बोझ पर चली गई, फिर मम्मी-पापा की डॉट की ओर जो उनको कार्टून देखने से रोकती है, फिर खाने पर, उसके बाद आए अभिनेता और अभिनेत्रियाँ, और उनकी चर्चा करीब ३० मिनट चली, मैं जड़ सा उनको ही देखता रहा. वो बच्चे अपनी ज़िन्दगी के हर पहलू पर कितने सजग थे. अरे मैंने आपको ये तो बताया ही नहीं की वो आगे क्या बनने वाले है,इसके बारे में तो कुछ बताया ही नहीं. वो देश के अभिनेता या राजनेता बनना चाहते है, भला क्यों? क्यूंकि दोनों में मान सम्मान बहुत मिलता है, और कमाई भी.

देखिए ना बच्चों की बातचीत भी अजीब होती है, और उनकी दुनिया भी क्यूंकि वो ख्याली पुलाव बहुत बनाते है,उम्मीद है की वो बड़े होते-होते असल ज़िन्दगी से रूबरू होंगे और अपनी इन बातों पर हसेंगे.

Saturday 30 August 2014

इक दिन तो आँखें बंद होगी ही


इसमें भी भला कोई शक है, नहीं ना. एक दिन तो इन आँखों को दर्द से, देखने की शक्ति से और सारी समस्याओं से छुटकारा तो मिलेगा ही, और सिर्फ इसको ही क्यों, पूरे शरीर को मिलेगा साहब. वो दिन होगा जब ज़िन्दगी और मौत के बीच का फासला मिट जाएगा. जब ज़मीन पर चलने वाला कहीं और जाएगा, पर कहाँ? ये कोई नहीं जानता कोई भी नहीं, खुद मैं भी नहीं.

मगर इतना जानता हूँ की कुछ भी हो जाए मैं किसी भी कर्मकांड से दूर रहूँगा, हाँ मगर इस बात को पूरी शक्ति से कह सकूँ ऐसा नहीं है, क्यूंकि उस पल तो इस शरीर तक में जान ना होगी. इसपर किसी और का अधिकार होगा, उनका जो शायद मेरे उत्तराधिकारी होंगे. यहाँ पर मैं वाकई में डॉ हरिवंश राय बच्चन जी की वो पंक्ति जिसका सन्देश शायद ये है, दोहराना चाहूँगा,

'जो मेरे पुत्र है, मेरे उत्तराधिकारी नहीं होंगे,
जो मेरे उत्तराधिकारी होंगे,मेरे पुत्र होंगे'

वैसे भी मैंने हमेशा ही उसको जिसको तथाकथित अंधे भक्त या श्रद्धालु,'भगवान' कहते है नकारा है, तो मैं अपनी मौत तक भी उसको नकारूँगा. मैं चाहूँगा की मेरी मौत के समय मुझे गंगाजल ना पिलाया जाए, बल्कि वाकई में वो हो, जो डॉ हरिवंश राय बच्चन जी ने मधुशाला में कहा है:

मेरे अधरों पर हो अंतिम वस्तु न तुलसी-दल,प्याला,
मेरी जीव्हा पर हो अंतिम वस्तु न गंगाजल, हाला,
मेरे शव के पीछे चलने वालों, याद इसे रखना-
राम नाम है सत्य न कहना, कहना सच्ची मधुशाला।।८२।

मेरे शव पर वह रोये, हो जिसके आंसू में हाला
आह भरे वो, जो हो सुरिभत मदिरा पी कर मतवाला,
दे मुझको वो कांधा जिनके पग मद डगमग होते हों
और जलूं उस ठौर जहां पर कभी रही हो मधुशाला।।८३।

और चिता पर जाये उंढेला पत्र न घ्रित का, पर प्याला
कंठ बंधे अंगूर लता में मध्य न जल हो, पर हाला,
प्राण प्रिये यदि श्राध करो तुम मेरा तो ऐसे करना
पीने वालों को बुलवा कर खुलवा देना मधुशाला।।८४।

वास्तविकता में मैं नहीं चाहता की लोग मुझे जलाए और ये कहें की अंत समय पर मैंने उनकी रीतियों से जीवन अंत किया. इसलिए मुझे नहीं चाहिए तुलसी का दाल या गंगाजल, ना ही शमशान में जलना है मुझको मंज़ूर, मुझको फेक देना किसी नाले में और हाँ, ना तो मेरी अस्थिओं को गंगा में बहाना,बल्कि किसी नाले में ही प्रवाहित कर देना, या चाहो तो मेरा शरीर किसी जानवर को खाने के लिए दे देना, और हड्डियां चाहे नाले में फेक देना. मगर मुझे किसी भी धर्म-कर्म के आधार पर मत प्रवाहित करना या जलाना.

मेरी अंतिम इच्छा को क़ुबूल करना.

Friday 29 August 2014

वाकई बहुत गर्म थी वो हवा!


भारत का विभाजन एक ऐसी पीड़ा है जिसका दर्द बयान करते नहीं बनता. सच पूछिये तो अपने बड़े बुज़ुर्गो से पूछते हुए भी डर लगता है, और जो हिम्मत करके बड़े बुज़ुर्गो से पूछ भी लिया तो उनकी कमज़ोर हो चुकी याददाश्त से इसको जान पाना बड़ा मुश्किल है. ये त्रासदी इतनी बड़ी है की किसी से पूछने पर भी इसका सही जवाब नहीं मिल सकता, और कितने लोग इस विभाजन के दौरान कत्लेआम का शिकार हुए, इसका तो आकड़ा भी सही सही नहीं लगाया जा सकता. देखिए ना मंटो साहब ने इसको कितनी ख़ूबसूरती से बयान किया है,

'ये मत कहो की १ लाख हिन्दू या एक मुसलमान मरे है, बल्कि ये कहो की २ लाख इंसान मरे है'


सच में, हम सब कितनी आसानी से किसी जीते जागते इंसान को कौम के नाम से बाँट देते है, और उस दौरान तो ये एक ऐसी बीमारी के रूप में फैला हुआ था की जिसे देखिये वो ही हर गैर हिन्दू, या मैं यदि कहूँ की मुसलमान को पाकिस्तान जाने की हिमायत कर रहा था.



वाकई में इस स्थिति को दर्शाने का बहुत ही सुन्दर प्रयास किया है एम.एस.सथ्यू साहब ने, वो सलीम मिर्ज़ा के किरदार में बलराज साहनी जी जैसा मंझे हुए कलाकार, तो वहीँ उनका साथ देते फारूक शेख साहब जो कहीं ना कहीं बेरोज़गारी से जूझ रहे थे, तो वही आमना के किरदार में गीता सिद्दार्थ, बहुत ही फब रहे थे. वो उस खुदा पर उम्मीद रखने वाले मिर्ज़ा साहब के सामने उनके परिवार का ख़त्म हो जाना,वहीँ बेटे का देश छोड़ कर चले जाना, मगर उनका अपने ही मुल्क में रहने की ज़िद रखना. वो कहते भी तो है,


'बेगम, दुनिया छोड़ने की उम्र में तुम देश छोड़ने की बात कह रही हो'



वो गांधीजी पर उनका विश्वास,और इस बाँट पर भी की सब कुछ ठीक हो जाएगा. हर मुश्किल से जूझते रहने की वो जद्दोजहद, कहीं ना कहीं आपको झकझोर देती है. वो बेटी का खुद को ख़त्म कर लेना, वो माँ का गुज़ा जाना, सब सहते हुए भी अपनी ज़िन्दगी जीने की ज़िद रखना, वो अपनों और लोगों की दुत्कार. वाकई बहुद गर्म थी वो हवा.

Thursday 28 August 2014

खूब लड़ी मर्दानी वो तो फिल्मों वाली रानी थी



सुनकर आपको शायद अजीब लगे मगर वाकई में यही था की वो खूब लड़ी मर्दानी वो तो फिल्मों वाली रानी थी. अगर इस फिल्म में अभिनय के बारे में मेरे दोस्त दिव्य सोल्गामा ने अपने रिवियू में तारीफ़ ना की होती तो शायद मैं इस फिल्म को देखने की भी नहीं सोच पाटा, और समय का अभाव तो वैसे ही रहता है मेरे पास.


खैर जब फिल्म देखने की शुरुआत हुई तो कई ट्रेलर्स ने दिमाग का बैंड बजाया, फिर जब फिल्म शुरू हुई तो लोगो ने चीखकर कहा,'मर्दानी', जैसे की देखने आए लोगों को पता ही नहीं है की वो कौन सी पिक्चर देखने आए है. फिल्म शुरू हुई तो मैं रानी को देखकर खुश था, क्यूंकि शायद बंटी और बबली के बाद मैं उनकी कोई फिल्म देखने आया था.


अगर फिल्म की बात करू तो एक्शन करती लड़की का किरदार इतनी ताकत के साथ काफी वक़्त में परदे पर देखा. कुछ डायलॉग्स बहुत ही उम्दा थे, अभिनय सुन्दर था, फिर चाहे वो किसी का भी हो, और सबसे अच्छी बात ये थी की फिल्म में कोई ज़बरदस्ती का कोई गीत नहीं था. अंत का गीत बहुत ही सुन्दर था, और आंकड़े भी तस्करी की कहानी बयान करते है.




अब समस्या ये थी की प्रकाश झा की तरह इन्होने भी समस्या को ऊपर ऊपर से छुआ या यूँ कहूँ की उसकी मार्केटिंग करी तो गलत नहीं होगा. हम फिल्मों में लोगों को समस्याओं से तो अवगत कराते है, पर उपचार से नहीं. हम समस्या की विकटता तो बताते है, मगर उससे आगे कुछ नहीं. ये गलत है. यदि हिम्मत रखते हो की किसी समस्या को उजागर करने की, तो उसके निद्दन से जुडी बातचीत भी करो. सिर्फ अंत में वॉइसओवर से काम नहीं होगा. अंत में लड़ाई के समय बेवजह की डायलाग-बाजी बहुत ही नीरस लगी, लेकिन ये मैं फिर कहूँगा की बड़ा मुद्दा उठाया था.




ऐसी फिल्में और बने इसकी कामना करता हूँ

Wednesday 27 August 2014

अमित जी को समर्पित


याद नहीं आता की मैंने कब से बच्चन साहब को पसंद करना शुरू किया था, मगर जो आखिरी स्मृति जाती है तो शायद मैं बच्चन साहब के गाने रेडियो पर सुनकर बहुत डांस किया करता था, और हो भी क्यों ना, वो देश के सबसे ज़्यादा चहीते और रिस्पेक्टेड अभिनेता और इंसानो में से एक है.


मैंने शायद उनकी पहली फिल्म दीवार देखी थी (शायद) या फिर डॉन, मगर वो जो भी थी, दिल में घर कर गयी थी. वो दिन है और आज का दिन है, ये प्यार, ये सम्मान, ये दिल्लगी कभी कम हुई ही नहीं. सच में कुछ चीज़ों और लोगों का नशा ऐसा होता है जो कभी कम ही नहीं होता, अब देखिये ना, बच्चन साहब ने शोले में माउथ ऑर्गन बजाय और मेरे बाबूजी के पास भी माउथ ऑर्गन था, सो मैंने बचपन में उसको खूब बजाया, और बाबूजी की शिक्षा के अंतर्गत, काफी सीखा,मगर समय के साथ बड़ा होता गया और ये अद्भुत कला मुझसे छूट गई.

आज भी प्रति दिन मैं बच्चन साहब से बहुत कुछ सीखता हूँ, जैसे की मुखौटे नहीं रखना. जिस विधा में वो है, वहां उन्हें हर इक कार्य में मुखौटे पहनने पड़ते है, मगर असल जीवन में ऐसा नहीं है. माँ-बाप की सेवा, लोगों से प्रेम, उनको आदर सम्मान देना, कम लेकिन खरा बोलना, और सबसे बड़ी रोजाना ब्लॉग लिखना, ये उनकी खूबियों में से कुछ है, जिनको मैं यहाँ इंकित कर रहा हूँ. बाकी को सीखने का और अपनी यात्रा पर चलने का प्रयास जारी है.







Monday 25 August 2014

के.बी.सी. इतना पसंद क्यों किया जाता है?

मेरे एक मित्र ने मुझसे ये पूछा की आप ये बता सकते है की ये नाटक इतना हिट क्यों है, मैंने कहा मेरा कल का ब्लॉग पढियेगा, जवाब खुद बा खुद मिल जायेगा. ऐसा करने की दो वजहें भी थी, एक तो ये की इस अद्भुत नाटक को चंद शब्दों में बाँध पाना मुश्किल है, और दूसरा ये की मेरे पास उस वक़्त समय की कमी थी.


हो ना हो ये सवाल हर उस इंसान के दिमाग में ज़रूर आता होगा, जो या तो किसी और गेम शो से जुड़ा रहा है या यूँ ही भी, मगर के.बी.सी. बहुत पसंद किया जाता है इसमें कोई शक नही और हो भी क्यों ना? आखिर कई कारण है इस नाटक के इतने सफल होने के पीछे, तो चलिए नज़र डालते है उन कारणों पर जो इस नाटक तो इतना ज़बरदस्त बना देते है:

सबसे पहले तो इस नाटक से जुड़े हुए विज्ञापन बहुत ही अद्भुत होते है, जिनमे एक सन्देश हमेशा ही छुपा होता है, अब चाहे पिछले कुछ वर्षों की पंच लाइनो को ही ले लीजिए, वो कहते है,'कोई भी इंसान छोटा नहीं होता','कोई भी सवाल छोटा नहीं होता', और इस बार तो अति सुन्दर 'यहाँ सिर्फ पैसे ही नहीं, दिल भी जीते जाते है', वाह क्या बाकमाल लाइन है, और इनसे जुड़े विज्ञापन भी कितने सुन्दर होते है.

अब उसके आगे की बात करे तो वो टीम जो इस नाटक का संचालन करती है, वो इंसान की एक बहुत बड़ी आदत, अर्थात,'सपने' देखने की आदत को और जगाती है, और इंसान ये सपना देखता है की चंद ही मिनटों में वो लखपति या करोड़पति बनकर अपनी समस्याओं से मुक्ति पा सकता है, हैं ना कमाल की बात. उसके बाद लोगों को अपनी बुद्धिमता को साबित करने का अवसर मिलता है, और वो भी इतना सुन्दर की जिन्होंने शायद अपने वयस्क होते ही पढाई से नाता तोड़ दिया था, वो भी पढाई करने लगते है, यानी लोगों को इस बात का महत्व समझ में आता है की ज्ञान कितना भी अर्जित कर लो, वो हमेशा कम ही होता है, और उसको प्राप्त करने का प्रयास कभी रुकना नहीं चाहिए.


फिर सोने पे सुहागा ये की देश के चहीते ही नहीं, बल्कि जगत चहीते अभिनेता और अद्भुत इंसान श्री अमिताभ बच्चन जी से मिलने का मौका मिलता है. वो कंप्यूटर जो आजतक सिर्फ इस्तेमाल किया जाता था, जीवित हो उठता है, और लोगों की किस्मत का फैसला करता है. वहाँ तो घडी भी जीवित हो उठती है,क्यूंकि कभी घड़ियाल बाबू, कभी टिकटिकी, कभी मिस टिक टॉक के रूप में.

जो सबसे ज़्यादा दिल को छूने वाली बात है वो ये की वहां पर आम इंसान ('आम आदमी' कहना आजकल राजनीतिक है) जिसने लोगों को सिर्फ टीवी पर आते देखा था, वहाँ का राजा होता है, और इसका श्रेय जाता है श्री अमिताभ बच्चन जी को क्यूंकि वो वहाँ पर आए हर इंसान को, चाहे वो दर्शक हो (सेट या घर पर) को  बहुत ही सम्मान देते है और उसको इस तरह का महसूस कराते है की आदमी वहाँ दिल देकर और लोगों का प्यार जीतकर ही जाता है.


Saturday 23 August 2014

हम प्रतिदिन कितना उन्नति करते?

कल मैं एकाएक अपने एक पुराने मित्र से रूबरू हो गया, और कमाल की बात थी की पहले पहल हम एक दूसरे को पहचान ही नहीं सके. वो बहुत ही बन-ठन के बैठे थे और मैं वही लोअर,टीशर्ट और चप्पल में. सोचकर ही अजीब लग रहा था की क्या ये वही है? मगर फिर शायद आवाज़ों का वो फेर की कोई भी एक दूसरे को पहचान ले. बात शुरू हुई तो मैं थोड़ा हिचकिचाया की साहब इतने बन-ठन के बैठे है, भला मैं उनको क्या कहूँ?

मगर ये सब सोचते हुए मेरे मन में ये सवाल आया की देखिए ना, कल तलक ये साहब क्या थे, आज क्या बन गए. ऐसा सोचते हुए कहीं भी कोई बुरी सोच नहीं थी, मगर मैं ये सोच रहा था की इंसान हर दिन तरक्की करता है, और ऐसा होना भी चाहिए, क्यूंकि हमारे लिए ज़रूरी है आगे बढ़ना,बेहतर होना, और ज़ाहिर सी बात है हमसब यहीं चाहते भी है, क्यूंकि कोई नहीं है, जो एक जैसा ही बनकर रहे, क्यूंकि यदि ऐसा है, तो यानी की हम एक मुर्दा की तरह है, जिसमे कहने के लिए जान तो है, मगर विकास नहीं.

रुका हुआ पानी भी बदबू मारने लगता है और अगर हम सब यदि उन्नति नहीं करते तो कहीं ना कहीं हम भी बदबू ही मारते है, क्यूंकि हम एक तरह से मुर्दा हो जाते है.

उम्मीद है की हम सब आगे बढ़ेंगे

Friday 22 August 2014

कब क्या और क्यों लिखूं

आज वाकई में कुछ लिखने की अवस्था में नहीं हूँ. ऐसा नहीं है की लिखना नहीं चाहता या सोच और भावनाओ के रूप में कुछ नहीं है लिखने को, मगर सोचता हूँ की कुछ बेहतर सोचने की अवस्था में हूँ, इसलिए कितना और क्या लिख पाऊँगा.

मगर लिखना भी ज़रूरी है, और हो भी क्यों ना, आख़िरकार हम एक दिन में बहुत कुछ करते और महसूस भी करते है, बस वही तो लिखना होता है और इसमें भी कितना मज़ा है की आप कुछ भी लिखे आप पूरी शिद्दत से लिख सकते है, और यदि आप उसको सही से लिख सके तो लोग उसको पढ़ेंगे भी, और क्यों  नहीं पढ़ेंगे? आप यदि खुद को सही से व्यक्त कर सकेंगे तो चाहे वो दुनिया का कोई भी स्थान हो इन्सान आपको ज़रूर सुनना, देखना और पढ़ना पसंद करेगा.

वैसे भी ये विधा तो आपके अंदर होती है, अब आप उसको कितना बेहतर बना सकते है, ये आपपर निर्भर है, वरना आप कुछ लिखे और बोले, और लोग आपको सुने ये ज़रूरी तो नहीं. वाह इस बात पर नुसरत साहब की एक कव्वाली,'मस्त नज़रों से अल्लाह बचाए' से ये पंक्तियाँ याद आ गई,

'उम्र जलवो में बसर हो ये ज़रूरी तो नहीं,
हर शबे गम की सहर हो ये ज़रूरी तो नहीं,
नींद तो दर्द के बिस्तर पे भी आ सकती है,
उनकी आगोश में सर हो ये ज़रूरी तो नहीं,
शैख़ करता है जो मस्जिद में खुद को सजदे,
उसके सजदों में असर हो ये ज़रूरी तो नहीं'


वाकई बहुत ही खूबसूरत पंक्तियाँ है, इतनी की आप और सुने बिना रह ही नहीं सकते, पर खैर छोड़िये, आज तो बस यहीं कहना था की मैं कुछ लिखना नहीं चाहता, मगर देखिये ना कुछ ना कहने की कोशिश में कितना कुछ कह गया, शायद ये ब्लॉग लिखने का असर ही है, की एक छोटी सी बात को समझाने के लिए भी इतना बड़ा ब्लॉग लिख दिया.

इसको पूरा पढ़ने के लिए आपका धन्यवाद.

Thursday 21 August 2014

देश डिजिटल हो रहा है

सच में क्या देश डिजिटल हो रहा है? देखिए ना प्रधानमंत्री भी डिजिटल और तो और ज़्यादातर विभाग भी डिजिटल. देखिए ना जो कभी समय पर ट्रेन नहीं पहुँचा सके वो आजकल नियमों का हवाला और जानकारियाँ ऑनलाइन दे रहे है, और तो और देखिए आज खुद प्रधानमंत्री जी ने शिक्षा को भी डिजिटल कर दिया, और वहीँ देखिये ना बच्चे रास्ते पर पन्नी बिन रहे होते है, मैले में अपने लिए कुछ खाने को ढूंढ रहे होते है.

कुछ बाल मज़दूरी, कुछ अन्यान्य कारणों से अपनी ज़िन्दगी में वो तथाकथित 'राइट टू एजुकेशन' अर्थात 'शिक्षा का अधिकार' पाने से मीलों वंचित है, मगर सरकार कहती है की हमें शिक्षा को डिजिटल बनाना है. मूर्खता की हद है की जिस देश में बच्चे आज भी दो वक़्त की रोटी को कमाने में अपना बचपन खो बैठते है, वहां पर ऐसी योजनाएँ जो उनको उनका शिक्षा का हक़ दे सके लागू नहीं होती,होती है तो ऐसी जो की मखौल उड़ा रही हो इस सिस्टम का, उन बच्चो का और लोग कहते है की वाकई में 'अच्छे दिन' आएंगे.

अपनी भावनाएँ लिखना भी क्या गुनाह है?

बताइए साहब, अपनी भावनाएँ लिखना भी क्या कोई गुनाह है? मैंने पिछले दो ब्लॉगों में अपनी भावनाएं व्यक्त क्या करी की लोगों ने इक बवाल सा मचा दिया है. कोई मुझे बुरा भला कहने के लिए कमेंट्स का सहारा ले रहा है, कोई मेरी भावनाओ पर ही सवाल उठा रहा है, और हो भी क्यों ना साहब, ये सब कुछ उनकी इच्छाओं के विपरीत है, और अगर मैंने ऐसा लिखा तो क्या गलत लिखा. जो मैंने महसूस किया वो लिखा.

यदि आपको मेरे ब्लॉग से नफरत है तो पढ़ना बंद कर दीजिए, मैंने तो आपको अपने ब्लॉग पर आने का न्योता नहीं दिया था. ये तो आपको तय करना है की आपको सिर्फ वो सुनना है जो की आपको ठीक लगता है, या की वो जो की वास्तविकता है.

निर्णय आपको करना है, मुझे नहीं

Wednesday 20 August 2014

हमारी मानसिकता

आज के इस ब्लॉग को लिखने के लिए एक प्रेरणा बच्चन साहब के आज के ब्लॉग ने की है. वैसे भी वो तो हमारे पितामह है. आप सोच रहे होंगे मैंने उन्हें अपना पितामह क्यों कहा, है ना? क्यों ना कहूँ साहब, आखिरकार वो लगातार ब्लॉग लिखते है, प्रतिदिन, किसी भी परिस्थिति में, और मेरे लगातार ब्लॉग लिखने की प्रेरणा भी कहीं ना कहीं वो ही थे. खैर पहले पहल मुझे इसकी उम्मीद नहीं थी, मगर आज ऐसा कर पा रहा हूँ, और खुश हूँ.

हाँ तो हम बात कर रहे थे मानसिकता की, वो मानसिकता जो की हमारे पैदा होने के साथ ही हम में डाल दी जाती है, ठीक उसी तरह जैसे की हमें एक दवाई पिलाई जाती है, धीरे धीरे, छोटी छोटी मात्रा में, मगर उस और इस दवाई में फर्क होता है. वो दवाई कड़वी होती है, मगर असर मीठा क्यूंकि वो हमें उस बीमारी से निजात दिलाती है जो हमारे अंदर घर कर गयी होती है, वहीँ ये दवाई तो बाहर से मीठी होती है, और इसी लिए हम उसको पी लेते है, जो अंदर जाते ही कड़वा असर डालती है. मगर करें भी तो क्या करें साहब हम उस वक़्त बेहद छोटे होते है, बिलकुल उस मिटटी की तरह जिसको जैसे भी चाहो मोड़ दो, चाहे उससे घड़ा बनाओ या गमला.

वैसे देखा जाए तो इन दो वस्तुओ से भी ये मानसिकता बयान होती है, जहाँ एक ओर गमला लगातार नए पानी के साथ अपना लगातार विकास करता है, और अपने अंदर लगे पौधे का भी, वहीँ घड़े में एक बार जो पानी डाल दिया, जब तलक वो या तो बदल नहीं दिया जाता या ख़त्म नहीं होता, वो पानी वैसे ही उसमे पड़ा रहता है, तो जहाँ घड़ा एक बंद सोच का प्रतिनिधित्व कर रहा है, वही गमला बदलती सोच का. घड़ा भी तब ही अपनी सोच से निवृत होता है जब या तो कोई उस सोच को ख़त्म कर दे, या उसको बदल दे, एक नयी सोच के साथ. देखिए ना, घड़े में पड़े पड़े पानी भी खराब हो जाता है(हालाँकि कई लोग इससे सहमत नहीं होंगे, मगर ये सच्चाई है), वहीँ दूसरी ओर गमले को मिलता पानी हर दिन नया होता है, मतलब नई सोच लगातार उसे मिलती है, और उसकी ख़ूबसूरती ऐसी होती है, की वो अपने साथ साथ अपने अंदर रखे गए एक पौधे को भी हरा भरा रख लेता है.

ये निर्णय आपको करना है की आप घड़ा बनेंगे या गमला.

Tuesday 19 August 2014

कुंठित होना गलत है, पर क्या करें?

ये बात तो सच है की कुंठित होना एक गलत बात है, और इस पीड़ा में होने वाला इंसान किस से,क्या कहे और कैसे इसका निर्धारण करने में बहुत समय लग जाता है. कुंठा वैसे तो मन का एक ऐसा आईना है जो आपको शायद ये बताता है की आप गलत राह पर है, क्यूंकि कुंठा से हासिल कुछ नहीं होता, सिर्फ नुक्सान होता है, मगर ये एक ऐसी क्रिया है जिसके दुष्परिणामों के बारे में सब जानते है, पर मानता कोई नहीं, और हम सब इसी कुंठा में जीवन जीते है.

कई लोग ये सोच रहे होंगे की वैसे आज इस ब्लॉग की ज़रुरत क्यूँ आन पड़ी? बात लाज़मी भी है, मगर अगर आप मेरा कल का ब्लॉग देखे तो ये ब्लॉग उस ब्लॉग को विस्तार से बयान करने का प्रयास है. अगर देखा जाए तो लोग कहेंगे की आप अपने घाव को नासूर बना रहे है, मगर सच ये भी है साहब की शायद ब्लॉग लिखकर मैं उस घाव को नासूर बनने से रोकने का प्रयास कर रहा हूँ,क्यूंकि कहते है की कुंठा को अपने अंदर रखने से वो ह्रदय की पीड़ा बन जाती है जो बाद में घृणा का रिसाव करते हुए पूरे दिल दिमाग पर अपना ज़हर फैला देती है साहब, जो की बहुत तकलीफदेह है, और उस पीड़ा के सामने ये तो लेश मात्र है.

खैर तो मैं सीधे मुद्दे पर आता हूँ. अगर आपने मेरा कल का ब्लॉग पढ़ा हो तो आपको ये पता होगा की मैं इस बात से थोड़ा सा दुखी था की नौकरी करने के कारण मैं थिएटर को उतना समय नहीं दे पा रहा, जितना देना चाहिए, और इस कारण मेरे सहरंगकर्मी मुझसे आगे निकल गए, और मैं पीछे रह गया. आज वो मंच पर एक स्थापित किरदार कर रहे है, और मैं कुछ भी नहीं. ये कितना दुखद और आत्मविश्वास को तोड़ने वाला है, इसके बारे में कुछ कहना भी असंभव है, क्यूंकि ना आपने मेहनत में कोई कमी रक्खी, ना लगन में, मगर आजतक मंच तो छोड़िए, नुक्कड़ में भी आपको एक वाक्यांश नहीं मिला. शायद इसका कारण ये की जिसके हाथों में कमान थी उसको लगा की मैं इस काबिल नहीं हूँ, वैसे ये दुखद है की तीर छोड़े बिना ही ये कह देना की धनुष खराब है.

आशा करता हूँ, की इस कुंठा द्वारा मुझे जकड़ने से पहले ही इसका निदान प्राप्त हो सके.

Monday 18 August 2014

दुखी हूँ

क्यों? और किस कारण, ये न बताने की इच्छा है, और न ही मैं ऐसा किसी की संवेदना को पाने के लिए कह रहा हूँ, मगर क्या दुखी नहीं हूँ? ऐसा नहीं है, दुखी हूँ, इसलिए नहीं की कोई आगे बढ़ गया और मैं पीछे रह गया.

यदि लगन या कोशिश में कमी होती तो शायद मैं इसको मान भी लेता मगर ऐसा नहीं है,मैं जानता हूँ की मैंने अपना सब कुछ इस सपने के लिए न्योछावर कर दिया, मगर आज जब तिरस्कृत सा महसूस करता हूँ तो दुःख होता है. लोग सारी सुविधाओं को पाने के काबिल है, और मैं नहीं, ऐसा क्यों? क्या मैंने मेहनत नहीं की, या मुझमें वो हुनर नहीं, वास्तव में ये बात नहीं, बात दरअसल ये है की जहाँ और लोगों ने चीज़ों के लिए हाय तौबा मचाई, मैंने नहीं करी, और शायद यही मेरी गलती थी. शायद इसी लिए मुझे नाकारा समझा गया, और कोई भी मौका नहीं मिला.

मैं नौकरी के साथ अपने उस सपने को पूरा करने की कोशिश कर रहा हूँ, तो क्या कोई गुनाह कर रहा हूँ? क्या करूँ साहब, मेरे पास वो साधन नहीं, जिनसे की मैं पैसे की फैक्ट्री लगा सकूँ और इस सपने को पूरा कर सकूँ, और शायद यहीं कारण है, की मुझे न तो वो सम्मान न वो मान, या इस काबिल ही समझा जाता है.

जिन्हे नाज़ है उनपर जो समय दे पाते है और उनपर दुत्कार जो अपनी सारी चीज़ो को मैनेज करते हुए अपना सपना पूरा करने की कोशिश कर रहे है, वो कहा है?

Sunday 17 August 2014

ऑन स्टेज या बैक स्टेज: कोर्ट मार्शल का नशा कम नहीं होता!

वाकई में कहना पड़ेगा की कुछ नाटक, या कृतियाँ ऐसी होती है जिनका नशा कभी कम नहीं होता. कौन कहता है, की सिर्फ शराब में ही नशा होता है, गर नाटक 'कोर्ट मार्शल' जैसा हो, तो उसका नशा वक़्त के साथ इतना बढ़ जाता है, की उतारे नहीं उतरता.

कुछ दिनों पहले मुझे ये सौभाग्य प्राप्त हुआ की मैं ऑन स्टेज, इस नाटक में सलाहकार जज का किरदार कर सकूँ. ये एक बहुत बड़ा मौका था, और मैंने भी इस मौके को हाथ से जाने नहीं दिया. वैसे तो मेरी डबल एक्सेल (XXL) बॉडी, आर्मी वालों की फिट & फाइन बॉडी से कहीं भी मैच नहीं करती थी, मगर लम्बाई, मूछें और शायद कुछ अन्य खूबियों को देखकर मुझे ये मौका मिला (ऐसा मुझे लगता है).

कुछ मौकों पर इस अद्भुत नाटक का भाग बनने पर जो ख़ुशी मेरे मन के अंदर थी, उसको बयान कर पाना मुमकिन नहीं था. पहली बार ड्रेस का पंगा, दूसरी बार सब चंगा, और कुछ अन्य मौकों पर परफॉर्म करके बहुत ही ख़ुशी हो रही थी. मगर ये नाटक बैकस्टेज से कैसा लगता होगा इसका इल्म नहीं था, सो मेरे मन में एक इच्छा थी की कभी इस नाटक को अब बैकस्टेज भी देख पाऊँ, और वो भी हो गया इस १५ अगस्त को.

खैर गलती भी मेरी ही थी, क्यूंकि जब कॉल टाइम १:३० बजे का हो तो आप ४ बजे के करीब कैसे आ सकते है, मगर कुछ ऐसी घटनाएँ थी जिनके कारण ऐसा हुआ, जिन्हे मैं इस वक़्त यहाँ नहीं बयां कर सकता. खैर ४ बजे जब एक बार फिर रिहर्सल शुरू हुई तो मैंने भी अपने सह-कलाकारों के साथ स्टेज पर एंट्री ली, इस उम्मीद के साथ की मेरा स्थान रिक्त होगा और मैं अपनी जगह पर बैठ जाऊँगा, मगर वहां मेरी जगह की भरपाई की जा चुकी थी. जैसे की मेरे एक मित्र शिव कानूनगो ने कहा भी,'नेक्स्ट इन लाइन तुम हो'. वैसे किसी को उनकी बात बुरी या ताने जैसी लग सकती है, मगर मुझे बहुत ही हास्यापद लगी, और हो भी क्यों ना, आखिरकार आप २:३० घंटे लेट होने के बाद ये उम्मीद कैसे कर सकते है की वो स्थान रिक्त रहेगा.

पूरे दिन की मेहनत, कपड़ो की सफाई, और अन्य मेहनते सारी तो वेस्ट सी लगने लगी, क्यूंकि मैं समय पर नहीं था, इसलिए वो किरदार किसी और को मिल गया. एक पल के लिए बड़ा दुःख हुआ,पर अगले ही पल ये ख्याल आया की ऑन स्टेज नहीं तो क्या हुआ बैकस्टेज तो काम कितने है, वो किए जा सकते है. ये सोच ही रहा था, की ऑनलाइन टिकट बुकिंग से जुडी जानकारियाँ निकालने के काम से जुडी बात होने लगी, और मैं ही वो देखता हूँ, सो मुझे लगा की वाह क्या काम आ गया, चलिए यही करते है, मगर ये भी मेरे एक साथी को मिल गया, मगर फिर उसका ऑन स्टेज एक एनक्टमेंट था सो वो उसकी रिहर्सल में लग गया. मैंने इस काम की कमान अपने हाथों में संभाली, और डेटा अपने एक साथी के साथ मिलकर तैयार किया. फिर टिकट खिड़की पर जाकर इससे जुडी तैयारियां करने लगा, खैर धीरे धीरे इतनी ऑडियंस आ गयी की लोग ज़्यादा थे और जगह कम, मगर हमने किसी को भी जाने नहीं दिया, किसी तरह उनको अंदर भेजा, और ऐसा क्यों ना हो, आखिर वो एक छुट्टी वाले दिन, और ना जाने कहाँ कहाँ से नाटक देखने आए थे.

नाटक के दौरान मैंने बैकस्टेज से जब इस नाटक को देखा तो हर इक डायलाग में और ख़ास तौर पर उन मौकों पर जब बजरंगबली सिंह जी किसी भी अफसर से सवाल करते तो नाटक की ऊर्जा तो किसी और ही चरम पर होती थी. आलम ये था, की लोग उनकी अदाकारी को देखकर हतप्रभ थे और मैं उनकी ऊर्जा और अदाकारी दोनों. क्या गज़ब का समां बाँधा उन्होंने की लोग मंत्रमुग्ध थे, और हतप्रभ भी! उन्हें बैकस्टेज से परफॉर्म करते हुए देखना उतना ही अद्भुत था जितना की उनके साथ स्टेज शेयर करना. क्या गज़ब की दृणता थी उनके शब्दों में की कोई भी मंत्रमुग्ध हो जाए. सलाम है उनको!

वो समय जब डॉ. गुप्ता लोगो को अपनी बातों से हँसाते, तो वही सूबेदार बलवान सिंह अपनी पीड़ा बताते, और अपनी गलती पर अफ़सोस करते. रामचन्दर का वो दहाड़ मार कर रोना, कर्नल रावत का सारी चीज़ो से बेखबर होने की बात करना, या फिर मेजर पुरी का बार बार टोकना. कैप्टेन कपूर का यूँ झल्ला कर बात करना, वो गार्ड का उनपर बन्दूक तानना, सलाहकार जजो का वो हर बात को नोट करना, कर्नल सूरत सिंह का वो अधिकारपूर्ण अपनी बात को कहना, और कैप्टेन बिकाश राय का वो तर्कपूर्ण तरीके से सारी बातों को रखना और जवाब के रूप में तथ्य कोर्ट के सामने लाना. अद्भुत था ये पूरा नज़ारा-ए-समां.

सच में ऑन स्टेज या बैक स्टेज: कोर्ट मार्शल का नशा कम नहीं होता! आपको छोड़े जाता हूँ इस नाटक की कुछ अद्भुत तस्वीरों के साथ, आनंद उठाइए!



















Thursday 14 August 2014

भारत वाकई में बदल रहा है

१९४७ वाला भारत अब नहीं दिखता, हाँ दिखे भी कैसे ये २०१४ है साहब, एंड्राइड फ़ोन वाला, फेसबुक/ट्विटर वाला भारत. वो भारत जो चमचमाती गाड़ियों में घूमता है, रात में पब में नाचता है साहब, और हाँ जहाँ मुन्नी के बदनाम होने और शीला के जवान होने पर लोग खुशियाँ लुटाते है, नाचते और गाते है. ये वो देश है साहब जहाँ देशभक्ति सिर्फ २४ घंटे की मेहमान होती है, उसके बाद वही दारु, लड़कीबाज़ी,बलात्कार,छेड़ने की बारी होती है.

क्या कहें साहब की जब शहीद भगत सिंह जी ने रस्सी को चूमा था, और अपने चर्चित लेख 'मैं नास्तिक क्यों हूँ?' में अपने इस अंतिम पल की बात कही थी:

'मैं जानता हूँ कि जिस क्षण रस्सी का फ़न्दा मेरी गर्दन पर लगेगा और मेरे पैरों के नीचे से तख़्ता हटेगा, वह पूर्ण विराम होगा – वह अन्तिम क्षण होगा। मैं या मेरी आत्मा सब वहीं समाप्त हो जायेगी। आगे कुछ न रहेगा। एक छोटी सी जूझती हुई ज़िन्दगी, जिसकी कोई ऐसी गौरवशाली परिणति नहीं है, अपने में स्वयं एक पुरस्कार होगी – यदि मुझमें इस दृष्टि से देखने का साहस हो। बिना किसी स्वार्थ के यहाँ या यहाँ के बाद पुरस्कार की इच्छा के बिना, मैंने अनासक्त भाव से अपने जीवन को स्वतन्त्रता के ध्येय पर समर्पित कर दिया है, क्योंकि मैं और कुछ कर ही नहीं सकता था।'

तो उन्हें भी उम्मीद होगी की हर एक रिश्ता और रास्ता सिर्फ देशभक्ति पर ख़त्म होता है, जैसा की माखनलाल चतुर्वेदी ने अपनी कविता 'पुष्प की अभिलाषा' में एक पुष्प के माध्यम से अपनी भावनाएँ व्यक्त करी है:


चाह नहीं मैं सुरबाला के

गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं, प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर हे हरि, डाला जाऊँ,
चाह नहीं, देवों के सिर पर
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ।
मुझे तोड़ लेना वनमाली!
उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पर जावें वीर अनेक



- माखनलाल चतुर्वेदी
वहीँ देश जहाँ कभी भगत सिंह जी २३ आल की उम्र में न जाने कितना ज्ञान रखते थे, और कितने कर्मठ थे, वहीँ आज का युवा तो बस रोज़ी रोटी के ख्याल में और लड़की के तिल में फंसा पड़ा है. यहाँ पर मुझे पियूष मिश्रा जी की 'गुलाल' फिल्म में गाई गयी नज़्म 'सरफ़रोशी की तमन्ना' याद आ रही है

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-क़ातिल में है
वक़्त आने दे बता देंगे तुझे ऎ आसमाँ
हम अभी से क्या बताएँ क्या हमारे दिल में है |
ओ रे बिस्मिल काश आते आज तुम हिन्दोस्ताँ
देखते कि मुल्क़ सारा क्या टशन में, चिल में है
आज का लौंडा ये कहता हम तो बिस्मिल थक गए
अपनी आज़ादी तो भइया लौंडिया के दिल में है |
आज के जलसों में बिस्मिल एक गूँगा गा रहा
और बहरों का वो रेला नाचता महफ़िल में है
हाथ की खादी बनाने का ज़माना लद गया
आज तो चड्ढी भी सिलती इंग्लिसों की मिल में है |


सच बोलू तो इस गीत में कितनी सच्चाई से आज के अजीब हालात को बयान करने का प्रयास किया गया है, की जहाँ आज का नौजवान सिर्फ टशन और लड़कीबाजी में व्यस्त है और बस आज के जलसों में कोई जाकर खुद को पहला प्रधानमंत्री घोषित कर देता है, और जनता उसपर यकीन भी करती है.

सच में हिन्दुस्तान (घटिया रूप से) बदल रहा है

Wednesday 13 August 2014

चुप रहना ही बेहतर है

ब्लॉग लिखते समय सोचा की आज क्यों लिखूं और क्या लिखूँ, और ऐसा हो भी क्यों ना? आखिर ब्लॉग का टाइटल भी तो यही कहता है की 'चुप रहना ही बेहतर है', मगर अंदर से एक आवाज़ आई लगा की जैसे ये बयां करूँ की चुप रहना भला क्यों बेहतर है?

सोचने लगा की भला ऐसा ब्लॉग क्यों? आखिर इस ब्लॉग का क्या लाभ? पर फिर अंदर से सवालों के बीच जवाब आया, खुद से सवाल करते हुए ये बताना भी ज़रूरी है की आखिर चुप रहना क्यों ज़रूरी है. खैर मैं कौन होता हूँ ये सलाह देने वाला की किसको, कब और क्यों चुप रहना चाहिए, मगर शायद कहीं ना कहीं आज मैंने कुछ सीखा जिसको एक ब्लॉग की शक्ल दे रहा हूँ.

हम जिस दुनिया में रहते है वहां अधकचरे ज्ञान वाले लोग ज़्यादा रहते है, जो स्वयं को महाज्ञानी समझते है, और दुःख इस बात का है की अपने इस अधकचरे ज्ञान पर सवाल किये जाते ही वो समस्याऍ करने लगते है, उनको लगता है की उनके ज्ञान पर आघात किया गया है. कितना दुखद है की उन्हें इस बात का इल्म भी नहीं होता है की वो कितनी बड़ी ग़लतफहमी के शिकार है, और उस पर सवाल किए जाते ही वो आपको ही गलत ठहराने लगते है. अलग अलग से कथन कहना शुरू करते है, कुछ ऐसे भी जो लोगों के बीच कहे भी नहीं जा सकते.

ऐसे लोग सदा ही स्वयं को ज्ञानी और जगत को अज्ञानी ही समझते है, जिनके हिसाब से आपकी कोई औकात नहीं, कोई मान नहीं, सम्मान नहीं, और कमाल है की ये सब वो डंके की चोट पर कहते है, उनको लगता है की उनके पास ऐसा कहने का अधिकार है और आप जो अपनी शीलता के कारण उनको कोई उत्तर नहीं देते, तो उसको कहीं ना कहीं कमज़ोरी समझा जाता है. मगर असलियत ये है की जब ऐसे लोग कुछ भी बोलना शुरू करें तो, चुप रहना ही बेहतर है.

Tuesday 12 August 2014

यहाँ समय बहुत ही कम है

ब्लॉग शुरू करने से पहले बच्चन साहब की अग्निपथ का वो डायलाग याद आ गया है:

'कहने को ये जीवन है, सिर्फ कहने को, मगर इधर वक़्त का कानून चलता है मालूम, वक़्त का.'

सच में यहाँ पर वक़्त का ही हुकुम चलता है, इंसान यहाँ आता तो अपनी मर्ज़ी से है, वैसे ये भी कहना गलत ही है, क्यूंकि इंसान यहाँ पर वक़्त की मर्ज़ी से आता है, और उसकी ही मर्ज़ी से यहाँ से चला जाता है. कहाँ? इसका जवाब तो कोई नहीं जानता, पर हाँ लोग कहते है की कोई स्वर्ग और नर्क जैसी दुनिया है, जहाँ लोग चले जाते है और फिर कभी नहीं आते.

क्या मज़ाक है की लोग उस चीज़ के बारे में भी जानते है, जहाँ वो कभी खुद नहीं गए, मगर इसमें भी कोई नई चीज़ नहीं, आखिरकार हम जिस देश-दुनिया में रहते है वहां ख़बरों से ज़्यादा अफवाएं पनपती है और ज़्यादा सच्ची मानी जाती है. देखिए ना एक इंसान आया, ख़ुशी हुई, ढोल बजे, कुछ वक़्त उसने लीला रची यहाँ पर, और फिर निकल लिया, किसी और यात्रा पर. कौन सी यात्रा? ये कोई नहीं जानता मगर लोग कहते है की हिंदुओ की बेहद प्रसिद्ध ग्रन्थ 'गीता' के मुताबिक इंसान एक चोला छोड़ता है, दूसरे में जाने के लिए.

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरो अपरानी|
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही||

पर क्या वाकई ऐसा होता है? क्या हममे से कोई ये जानता है की कौन मरने के बाद कहाँ गया, या क्या किया? नहीं ना? मगर क्या करें साहब हम सब इन मिथको के साथ ही पैदा होते है और इनके ही साथ में निकल लेते है. देखिए ना, पिछले साल तक हम सब गिन्नी प्राजी के साथ हँस-बोल रहे थे, और एक दिन आया की वो निकल लिए. कहाँ? इसका तो जवाब दे पाना भी बहुत मुश्किल है, की कोई कहाँ निकल जाता है, मगर एक कमाल की चीज़ देखी मैंने, लोग हमेशा से अपने नाम के आगे स्वर्गीय ही लगवाना चाहते है, या यूँ कहूँ की उनके अपने हमेशा ही ये तमगा लगवाते है, जैसे की उन्हें पता है की मरने वाला कहाँ जाएगा, और अगर सब 'स्वर्ग' में ही जाएंगे तो 'नर्क' वालो का तो काम ही खत्म हो जाएगा.

यहाँ मुझे स्टीव जॉब्स की वो खूबसूरत लाइनें याद आती है की 'मृत्यु एक ऐसा गंतव्य है, जो हम सब बांटते है, मगर कोई भी वहाँ पहले नहीं जाना चाहता'. कितनी सच्ची है ये लाइन, कितने अर्थ छुपे है इसमें, और उससे भी अधिक ये लाइन,'आपका समय बहुत ही नियत है, इसे किसी और के तरह की ज़िन्दगी जीने में मत गुजारिए'


सच में कितनी बढ़िया बात कह गए स्टीव साहब, यहाँ समय बहुत ही कम है, इतना कम की आपको नहीं पता की अगले पल आप अपनी मंज़िल पर होंगे या चार कंधो पर, की आप जश्न मन रहे होंगे या आपके नाम का मातम हो रहा होगा, की आप किसी के साथ अच्छे पल बिता रहे होंगे, या आपके कान और नाक में रुई ठूसी जा रही होगी. सच में यहाँ समय बहुत ही कम है, इतना कम की अगले पल का पता नहीं होता और लोग ज़िन्दगी भर के कस्मे वादे कर बैठते है.

देखिए ना पिछले साल हम गिन्नी प्राजी के साथ हस बोल रहे थे, और आज उनकी तस्वीरों को देखकर ही ये सुकून कर लेते है की कोई कभी हमारे साथ था, जिसने हमें इतने मोमेंट्स दे दिए की हम ज़िन्दगी भर उन यादों के सहारे ही जी लेंगे. इस पल जगजीत जी के वो दो गीत याद आते है, जो मुझे कहीं ना कहीं रुला देते है, क्यूंकि मैंने पहली बार किसी के मृत शरीर को मोर्ग से शमशान तक पहुँचाया था, किसी का शरीर जलते हुए देखा था, किसी ने मेरी ज़िन्दगी में मेरे साथ होकर इतना बड़ा असर डाला था की मेरे पास उसको बयान करने के लिए शब्द नहीं है. हाँ,तो मैं गीतों की बात कर रहा था, वो गीत है,

चिट्ठी ना कोई सन्देश, जाने वो कौन सा देश जहाँ तुम चले गए


और दूसरा

जाते जाते वो मुझे अच्छी निशानी दे गया, उम्र भर दोहराऊँगा, ऐसी निशानी दे गया


अंत में यहीं कहूँगा दोस्तों की अपनी ज़िन्दगी को जितना ज़्यादा और जल्दी जी लो, वही अच्छा, क्यूंकि अगला पल है या नहीं ये आप नहीं जानते.