Thursday 31 July 2014

मरीज़ों की दुर्दशा देखिए

कल शाम 'अस्मिता वीकेंड ग्रुप' की प्रस्तुति देखने के बाद मैंने जैसे ही घर जाने की सोची, ये भूल गया की मैं एक ऐसे रुट की ओर जा रहा हूँ जहाँ से घर के लिए बस कम मिलती है. खैर किसी तरह मैं भारत के सबसे बड़े चिकित्सा स्थल एम्स पहुँच गया.










(तस्वीरें सांकेतिक तौर पर उस स्थिति को दर्शाने हेतु)

वहाँ पर कुछ चीज़ें देखकर हमें ऐसा लगा जैसे की मैं शमशान या अभी अभी किसी के देहावसान समारोह में आ गया हूँ. चूँकि रात के ११ बज चुके थे, सो ज़्यादातर लोग सोने की कोशिश कर रहे थे. वहाँ पर कोई मेट्रो स्टेशन के बाहर की सीढ़ियों पर, कोई बस स्टैंड पर, कोई बगल में बनी एक छोटी सी गली में सो रहा था. वहाँ पास ही एक सुलभ शौचालय है, जहाँ से भयानक बदबू आ रही थी, पर लोग उसके बाहर भी सो रहे थे. देखकर बहुत ही अजीब लगा क्यूँकि ये कोई जानवर नहीं थे, ये तो इंसान थे, हाड-माँस वाले इंसान, वो लोग जो अपनों का इलाज करवाने इस बड़े अस्पताल में आये थे. वहीँ पर जनसँख्या का बोर्ड भी लगातार बढ़ रहा था. पहले पहल लगा की शायद ये कोई मशीन से चलने वाली घडी है जो हर एक सेकंड में एक अंक आगे बढ़ रही है, मगर ऐसा नहीं था, नीचे लिखा वाक्य ये प्रमाणित करता था की वो जनसँख्या बताने वाली एक मशीन है, और उसपर मैंने अंक देखा १,२८७,६७९,२८६ (अनुमानित). देखकर दंग रह गया, और जहन में एक पंक्ति आई,

'वक़्त के साथ बदल गए है हालात कुछ ऐसे,
की इंसा ज़्यादा है, और धरा कम पड़ गयी है'

बहुत अच्छा लगा, मगर अगले ही पल सोचने लगा की जो लोग अपनों का इलाज करवाने वहां आए हुए है क्या उन्हें भी सुरक्षा और सुविधाओं का हक़ नहीं है? क्या वो यहाँ सिर्फ इसलिए है की एक बीमार इंसान को बचा सके, और अगर इस दौरान उनकी तबियत को कुछ हो जाए तो? क्या उन्हें इस बात का इनाम रास्तो पर सोने के लिए मजबूर होकर दिया जाता है और वहाँ के बेहताशा खर्चे को सहकर भी?

कमाल की बात है की जहाँ इतनी बड़ी ज़मीन है, वहीँ पर अगर मरीज़ों के संबंधियों के रहने का इंतज़ाम भी हो जाए तो कितना अच्छा हो. वहां पर मैंने कुछ औरतों/बच्चियों को भी देखा जो बेचारी बस स्टैंड पर सोने के लिए मजबूर थी, और उससे भी बड़ी समस्या है प्रसाधन की. पुरुष तो कहीं भी प्रसाधन कर सकते है, परन्तु स्त्रियों के लिए प्रसाधन का कोई इंतज़ाम क्यों नहीं?

अगर मरीज़ों के संबंधियों को सुविधाएं मिलेंगी तो शायद उन्हें भी अच्छा लगेगा और हमारे देश की छवि भी बेहतर होगी, वरना इस तरह तो हम उन्हें भी बीमार और कुंठित कर रहे है.

Wednesday 30 July 2014

दिन कुछ ऐसे आता है

हर दिन अपने आप कुछ नए अनुभव लाता है,
किरणों के साथ सूरज भी यूँ जगमगाता है,
हर सांस कुछ नया करने का जोश दे जाता है,
दिन कुछ ऐसे आता है,

नित नवीन सपनो का जोश मन बहलाता है,
अपनी कहानी लिखने को नया साफा दे जाता है,
खुद से बेहतर बनने की उम्मीद जगाता है,
दिन कुछ ऐसे आता है,

हरपल आगे बढ़ने को आतुर होते,
अपने सपनो से हरपल है लड़ते,
हर दिन एक नई सीख दे जाता है,
दिन कुछ ऐसे आता है,

कभी सपनो से मेल है जाते,
कभी भीड़ में धक्के खाते,
हर पल पिछले से बेहतर बना जाता है,
दिन कुछ ऐसे आता है,

इक पल अपनों से लड़ते,
अगले पल उनसे प्यार करते,
कई किरदार इंसा रोज़ निभाता है,
दिन कुछ ऐसे आता है,

चांदनी की रौशनी से दिन की साँझ होती है,
अपनों से मिलकर ही वो अलौकिक ख़ुशी मिलती है,
अपने तो अपने होते है, हर दिन ये हमको समझाता है,
दिन कुछ ऐसे आता है

Tuesday 29 July 2014

एक और छुट्टी का दिन, एक और ख़ुशी का दिन

एक और छुट्टी का दिन, एक और ख़ुशी का दिन. वाकई में एक नौकरीपेशा आदमी के लिए छुट्टी का दिन एक ऐसा तोहफा है जिसको शब्दों में नहीं बयान किया जा सकता और मेरे लिए भी आज का दिन कुछ ऐसा ही था, क्यूँकि ये इतवार के इलावा किसी और दिन आया था.

कल की शाम डॉ. संगीता गौड़ के 'सावन और तीज के गीत' समारोह के साथ समाप्त करने का आनंद मन में पहले से था, ऊपर से उनकी आवाज़ में इतनी शक्ति थी की खुद मेघा भी बरसने को मजबूर हो गए. खैर समारोह समाप्त हुआ और मैं अपने घर पहुँचा. बड़ी ख़ुशी के साथ स्वप्नलोक में गया क्यूँकि अगले दिन छुट्टी थी., मगर दिमाग में प्लान.

सुबह आँख खुलते ही प्लान दिमाग में आ गया. सो पहले पहल कमरे की सफाई की, ज़रूरी भी है, क्यूँकि हर दिन हम इतनी हड़बड़ी में साफ़ सफाई करते है और सिर्फ छुट्टी वाले दिन ही अच्छे से सफाई हो पाती है, सो आज वो दिन था. सुबह ८ बजे से पहले पहले ये काम ख़त्म कर चुका था. अब अगला मिशन था, क्लाइंट वर्क. क्या करूँ, क्लाइंट ने कल काम टाइम पे कम्पलीट नहीं किया था, तो आज उसका काम भी पूरा करना था, मगर अनदर ये भय भी था की कहीं इंटरनेट कैफ़े नहीं खुले तो? कहिर वहां पहुँचकर ये पता चला की वो आज खुले थे. सो मैंने झट से क्लाइंट का काम पूरा किया, पर उससे पहले सर के ब्लॉग पर कमेंट कर चुका था. अब क्लाइंट व्लाइंट बाद में, पहले सर है हमेशा.

घर आते ही प्लान पे लग गया, उठाया और पूरे किचन की अच्छी तरह से सफाई करी, करते करते देर शाम हो गयी,फिर सब्ज़ी ले आया और आटा भी, अब अगर शेफ बनना है तो पूरी तरह से बनू.

ये ब्लॉग लिखते तक खाना नहीं बनाया था, पर उम्मीद है की रोटियां टेढ़ी मेढ़ी ही बनेंगी. ज़रूरी था की मैं इस अनुभव को बाटूँ क्यूँकि शायद ये मुझे प्रेरित करेगा की मैं घर के खाने की आदत डालूँ, और अपनी बिगड़ती सेहत को ठीक करूँ.

Monday 28 July 2014

ऐसे लम्हे रोज़ रोज़ नहीं आते!

 
(साभार:अमिताभ जी का ब्लॉग)

यकीन मानिए जो मैं ब्लॉग के टाइटल में कहना चाहता हूँ वो बिलकुल सच है. ऐसे मौके और ऐसे लम्हे रोज़ रोज़ नहीं आते जब आपको श्री अमिताभ बच्चन जी से मिलने या उन्हें समक्ष सुनने का सौभाग्य प्राप्त हो, मगर मेरी ये यात्रा आज शुरू नहीं होती,ये शुरू होती है शनिवार की सुबह ११ बजे से.



(साभार:अमिताभ जी का ब्लॉग)

शनिवार को मुझे एक फ़ोन आया. फ़ोन करने वाली लेडी बहुत ही रेस्पेक्टेबल पर्सन है और मैं उनकी बहुत इज़्ज़त करता हूँ. उनसे बातचीत के दौरान पता चला की बच्चन साहब रविवार शाम को यूनीसेफ के एक कार्यक्रम में सम्मिलित होने के लिए दिल्ली आ रहे है! कानों पर यकीन ही नहीं हुआ और ख़ुशी के मारे जबान ने जवाब देना बंद कर दिया. चाँद सेकण्ड्स के बाद मुझे एक और खुशखबरी मिली की सर के इस इवेंट के लिए एक पास उपलब्ध है जो वो मुझे देना चाहती है. यकीन नहीं हुआ की क्या मैं इस लायक हूँ? फिर बेहद ख़ुशी के साथ मैंने उसे एक्सेप्ट करना चाहा. शाम को वो मुझे प्राप्त भी हो गया. इसके मिलने से पहले तक मैं भावनाओ के समुन्दर में गोते खा रहा था, की जब बच्चन सर मुझे मिलेंगे तो उनसे क्या बातें करूँगा, और हमारे बाकी के इएफ साथी भी होंगे. इन सभी सपनो के साथ मैं सोने गया.

मैं शायद इतना ज़्यादा खुश था, की सुबह ६ बजे ही उठ गया वरना नार्मल दिनों में ७ बजे से पहले बहुत कम ही मुमकिन होता है.सुबह से बस दिल में यही ख्याल था की मैं कितने बजे इस समारोह के लिए निकलूँगा. कैसे अपने प्रभु से मिलूंगा और तब क्या कहूँगा? बहुत घबराया भी था, क्यूंकि कुछ चीज़ें अपनी जगह पर नहीं थी, मगर समय के साथ चीज़ें तरतीब में आ गयी. आखिरकार शाम ४ बजे मैंने स्टेडियम की ओर प्रस्थान किया.

चूँकि मुझे जगह का पता नहीं था, तो मैंने आधे रास्ता बस से और बाकी का एक ३ व्हीलर से तय किया. वहां पहुँचा तो लोग कतार में एंट्री का इंतज़ार कर रहे थे. कड़े सुरक्षा चेक के बाद हमें अंदर जाने का मौका मिला. अंदर लोग अपनी जगह ले चुके थे, और कुछ अभी अंदर आ रहे थे. इनसब से बेखबर कुछ लोग अपनों की तसवीरें लेने में व्यस्त थे, कोई ग्रुप में, कोई स्मारक के बीच में और कोई अन्य तरीको से. कोई सीट पर बैठा बाते कर रहा था और मैं अपने इएफ साथियों को फ़ोन मिलकर ये जानना चाहता था की वो वहां पर है या नहीं, मगर नंबर पहुँच से बाहर आ रहा था. कोई बात नहीं, मैं वहां पर दिल्ली की इएफ का प्रतिनिधित्व कर रहा था.

(साभार:भारत स्वास्थ मंत्रालय,ट्विटर)
(साभार:भारत स्वास्थ मंत्रालय,ट्विटर)
(साभार:भारत स्वास्थ मंत्रालय,ट्विटर)
(साभार:भारत स्वास्थ मंत्रालय,ट्विटर)
(साभार:भारत स्वास्थ मंत्रालय,ट्विटर)
(साभार:भारत स्वास्थ मंत्रालय,ट्विटर)
(साभार:भारत स्वास्थ मंत्रालय,ट्विटर)

जैसे जैसे ६:३० का समय नज़दीक आया, मेरी धड़कने बढ़ने लगी. मेरी दाई ओर से सर ने प्रवेश के साथ ही सबको नमस्कार किया और फिर कार्यक्रम की शुरुआत हुई. पहले चार लोगों ने अंग्रेजी में बातें करी, यहाँ तक की हमारे स्वास्थय मंत्री ने भी, और सब ने इस मिशन में सर के जुड़ने के लिए उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट की. फिर सर को स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया गया. बताने की ज़रुरत नहीं की उस समय स्टेडियम में कितना शोर था, और कितना अभिवादन करती हुई तालियां, लोग अपनी सीटों पर खड़े थे, महानायक का धन्यवाद करने के लिए. अब सर बोलने के लिए आए, और अब भी लोग खड़े थे और तालियाँ बजा रहे थे. सर ने सबको नमस्कार करके बैठने का इशारा किया,तब कहीं लोग सीटों पर बैठे, और बाकी वक्ताओं से अलग सर ने जान जान की भाषा हिंदी में बात कहना शुरू किया. इससे पहले लोग कह रहे थे,'पता नहीं ये सब अंग्रेजी में क्या बोल रहे, कुछ समझ में नहीं आता', पर जब सर बोल रहे थे तो पूरा स्टेडियम ध्यान से उन्हें सुन रहा था.

(साभार:अमिताभ जी का ब्लॉग)










सर ने बाबूजी की एक बात का ज़िक्र किया जिसमे उन्होंने कहा की बाबूजी कहते है की जब हवन का धुँआ उठता है तो राक्षस मर जाते है, जो उन्होंने पोलियो के राक्षस के सन्दर्भ में कहीं. उन्होंने हर उस इंसान का शुक्रिया अदा किया जिसने इस कार्य में मदद की. इसके बाद सर प्रेस मीटिंग में गए, जहाँ उन्होंने मीडिया वालो के सवालों का जवाब दिया. उसके बाद सर आराम से अपने फैंस से मिलने लगे, और मैं उनके बिल्कुल बगल में ही था, उन्हें सामने से निहार रहा था, उनकी अद्भुत आवाज़ में खोया हुआ था की तभी एक उग्र इंसान ने सर की सिक्योरिटी को तोडना चाहा और अंदर घुस गया. इसके बाद सर किसी से नहीं मिल सके. हालांकि जब सर वहाँ से अपनी गाडी की ओर जा रहे थे, तो मैंने 'हेलो सर' कहकर सम्बोधित किया और सर ने हाथ हिलाकर मेरी बात का अभिवादन भी किया. ऐसा लगा मैं शायद बेहोश ही हो जाऊँगा. मैं उन्हें बाहर भी देखने गया और उनके बेहद करीब भी था, मगर अब सर अपनी गाडी में बैठे और चले गए. सर सदा ही इतने शांत रहते है और उनके चेहरे की चमक ऐसी है की किसी को भी शांत कर दे. इतनी मनमोहक हँसी की जिसके सामने दुनिया की हर चीज़ मिथ्या है.

शब्द नहीं है की मैं कैसे आपकी प्रशंशा करूँ. नमन!

Sunday 27 July 2014

पहले दिन तो आप ऐसे न थे?

ये ब्लॉग अस्मिता थिएटर ग्रुप के डायरेक्टर श्री अरविन्द गौड़ जी को समर्पित!

पहले पहल तो ये शब्द सुनने में बहुत ही अजीब लगेंगे, और हो भी क्यों ना, आखिरकार कोई यदि आपको हमेशा एक जैसा ही चाहे, या ये चाहे की आप पहले दिन जैसे ही रहे तो ये एक अजीब सी कश्मकश होगी की पहले दिन तो मैं बित्ते भर का था और अपनों के हाथों में लोरियाँ सुनता था, और अगर ये बात की जाए की मैं पहले दिन जैसा नहीं रहा तो क्या ये कहा जा रहा है की मेरा विकास हुआ है, और ये तो अच्छी बात है, क्यूँकी मैंने समय के साथ विकास किया है और डार्विन की थ्योरी भी हमेशा आगे बढ़ने या सर्वाइवल ऑफ़ द फिट्टेस्ट की बात करती है.

मगर यहाँ बात कुछ और ही है, यहाँ पर बात हो रही है, की जब आप कुछ समय बाद अपनी बुद्धि या समझ के आधार पर सामने से उत्तर देने लगे और उसको स्वयं पर प्रहार समझा जाने लगे, मगर ये समझना बहुत ज़रूरी है की हम सब किसी से भी एक जैसा रहने और होने की कल्पना नहीं कर सकते, क्यूँकी यहाँ हर चीज़ चलायमान है, और इंसान तो सर्वप्रथम. इसलिए ये मान लेना की इंसान हमेशा एक जैसा ही रहेगा और कभी भी आपको उत्तर नहीं प्राप्त होगा, एक सपनो की दुनिया में रहने जैसा होगा, क्यूँकी ये असंभव है. हर इंसान एक समय तक किसी भी बात को सुन या समझ सकता है, और ये ज़रूरी नहीं की आप सदा ही सहीं हो. यहाँ पर मैं डॉ हरिवंश राय बच्चन जी की वो पंक्तियाँ प्रस्तुत करना चाहूँगा:

कहने की सीमा होती है 
सहने की सीमा होती है ,
कुछ मेरे भी वश मे है 
कुछ सॊच समझ अपमान करो मेरा


कितनी गहरी बात कह गए बाबूजी, कुछ ऐसी जो कहीं ना कहीं एक बहुत बड़ा अर्थ रखती है. मगर जिस बारे मे मैं कह रहा हूँ, वो है की पहले दिन जिस प्रकार की ऊर्जा, ढृणता, कर्तव्यनिष्ठा के साथ आप कहीं जाते है क्या आप उसको कायम रख पाते है? यदि नहीं तो फिर आपको पुनर्विचार की ज़रुरत है, जैसे की फिल्म 'शोले' मे संजीव कुमार जी का महानायक अमिताभ तथा धरम प्राजी को को कहा गया वो डायलाग,' मैं देखना चाहता था की तुममे आज भी वही जोश और जूनून है, या वक़्त के दीमक ने तुम्हारी जड़ो को खोखला कर दिया है'

उम्मीद है की इस ब्लॉग का सही अर्थ निकाला जाएगा

Saturday 26 July 2014

तब रोक न पाया मैं आसूँ

मेरे इस ब्लॉग का शीर्षक कहीं ना नहीं डॉ हरिवंश राय बच्चन जी की कविता से हूबहू मेल खाता है, मगर यहाँ कहानी कुछ और ही है.

ये बात है ८ जुलाई की, वो तारीख जिस दिन गिन्नी प्राजी ने,मेरे दोस्त ने चोला छोड़ दिया था. एक साल पहले जब मेरे दोस्त ने चोला छोड़ा था तब मुझे यकीन नहीं हो रहा था. इस बात की उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी की प्राजी इतनी छोटी सी उम्र में चोला छोड़ कर हमसे मीलों दूर चले जाएँगे. आज भी रह रह कर वो वक़्त मुझे याद आता है:

वो तारीख थी शायद ६ जुलाई की, जब हमने एक नाटक ख़त्म किया और प्रेक्षागृह के बाहर हम मीटिंग कर रहे थे. मीटिंग ख़त्म होते के साथ ही मैं घर को रवाना हुआ क्यूंकि मुझे उस दिन एक अजब सी इच्छा ने जकड रखा था, और वो थी घर जल्दी पहुँचने की इच्छा. मैं घर पहुँचा, रात का भोजन खत्म किया, इस ख्याल से बिल्कुल बेखबर की कहीं किसी अस्पताल में मेरा दोस्त आखिरी सांसें गिन रहा है. इससे अजब इत्तेफाक क्या होगा की हमेशा ट्विटर पर रहने वाला इंसान, यानी की मैं उस दिन ट्विटर पे नहीं था.

उस रात मेरे वहाँ से निकलते ही मेरे थिएटर गुरु श्री अरविन्द गौड़ जी को एक सन्देश मिला, लिखा था,'अर्जेंट, प्लीज कॉल'. मैसेज में लिखे शब्दों की गंभीरता को देखते हुए तुरंत ही फ़ोन किया गया तो पता चला की गिन्नी अस्पताल में भर्ती है और हालत गंभीर है. बस फिर क्या था, सभी लोग तुरंत अस्पताल पहुँचे. इस दौरान उसकी सलामती के ट्वीट्स आने लग गए थे, क्यूँकि अरविन्द सर ने ट्वीट कर दिया था, और मैं इन सबसे बेखबर गहरी नींद में था.

रात करीब सवा एक बजे मेरे फ़ोन की घंटी बजी, एक पल को तो मुझे ऐसा ही लगा जैसे सपनो में ही घंटी बज रही थी, मगर थोड़ी देर बाद जब वो दुबारा बजी तो ये समझ में आया की वो सपना नहीं हकीकत थी. मैंने फ़ोन देखा, वो मेरे दोस्त हिमांशु सिंह का फ़ोन था, पहले पहल मैं भौचक्का हुआ की इतनी रात को हिमांशु का फ़ोन क्यों? मैंने फ़ोन उठाया और उधर से आती हुई आवाज़ ने मुझे सहमा दिया, आवाज़ आई,'गिन्नी का एक्सीडेंट हो गया है और वो अस्पताल में है'. मुझे लगा कोई मज़ाक कर रहा है या बकरा बना रहा है, क्यूंकि प्राजी तो मेरे सामने ठीक ठाक हालात में घर को निकले थे. उसने आगे कहा,'सर ने तो ट्वीट भी कर दिया है'. मैं हतप्रभ था की मैं आज ट्विटर पे क्यों नहीं आया. मैंने कहा मैं पहुँचता हूँ, मगर चूँकि वो अपने घर से निकल चुके थे तो मुझे बीच में कहीं मिलने को कहा,मैंने एम्स पर मिलना सही समझा क्यूँकि वहाँ से अस्पताल पास पड़ता था. मैंने अगले दिन के नाटक के कपड़े बैग में डाले और रात में ऑटो करके एम्स पहुँचा. अगले ही पल वो भी वहीँ थे, वो विद हेलमेट और मैं विद आउट हेलमेट रॉंग साइड चलाते हुए अस्पताल पहुँचे.

चूँकि कुछ समझ नहीं आया तो हमने दीवार फांदी और वहाँ पर सब लोग थे. रात भर वही रुका रहा मैं और सब साथी, सुबह सुबह मैं और मोना बिश्ट वहाँ पर थे. बाकी सब धीरे धीरे घर गए, मगर सब जल्दी जल्दी वहाँ आ रहे थे, क्यूंकि सबके दिलों को कहीं न कहीं छुआ था गिन्नी ने. हम सब उसको देखना चाहते थे. आखिरकार सुबह उन्होंने हमें आई.सी.यू. में जाने का मौका दिया. देखकर यकीन नहीं हो रहा था की ये प्राजी का चेहरा था.

वो नीला पड़ चुका चेहरा, बायीं आँख के चारो ओर काला घेराव, जो की उनके साथ हुए एक्सीडेंट की कहानी बयान कर रही थी. खुले हुए केश, सर पे चोट का निशान और वो शिथिल सा शरीर जिसको वेंटीलेटर की शक्ति से जीवित रखने का प्रयास किया जा रहा था. वो मशीन की आवाज़ जो कुछ तरंगे पैदा कर रही थी, जिससे शायद उनको बचाने का प्रयास किया जा रहा था, और उनके समक्ष खड़ा मैं, जो बिना वेंटीलेटर के ही शिथिल सा खड़ा था, और अंदर उमड़ता दुःख, आंसूँओं का सैलाब, जो बाहर आना चाहते थे, मगर मैंने उन्हें रोका, क्यूँकि यदि मैं रो पड़ा, तो बाहर आंसूँओं का ज्वालामुखी फट पड़ेगा. ऐसा सैलाब आएगा जो किसी से संभाला भी नहीं जाएगा.

अपनी भावनाओ को सँभालते हुए, मैं बाहर आया, मगर वहां पहले से मेरे ग़मगीन साथी खड़े थे. मैंने खुद को संभाला, क्यूँकि वहाँ हर इंसान भावनाओ के सैलाब में गोते खा रहा था और गर मैंने भी अपनी भावनाओ पर काबू नहीं पाया तो मैं इतने सारे भावनाओ के सुलगते ज्वालामुखियों को भटने से कैसे रोक पाऊँगा.

पर जैसा की कहते है 'द शो मस्ट गो ऑन', तो शाम को अपने दो साथियों, लतिन घई और विनय शर्मा को ड्यूटी पर लगाकर हम नाटक करने पहुँचे. इस हिदायत के साथ की यदि कुछ भी बदलाव होता है तो तुरंत सूचित किया जाए. पहली बार मैंने अरविन्द सर को इतना भावुक देखा. सर कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थे,नाटक से पहले सर ने बस इतना कहा,'याद रखना हम उसके लिए कर रहे है जो अपनी ज़िन्दगी के लिए वहाँ अस्पताल में लड़ रहा है'

रूंधे गले और नम आँखों से हमने नाटक शुरू किया. दर्शकों को इस बारे में सूचित कर दिया गया था. स्टेज पर आते ही हम सब नार्मल बिहेव करते, पर पलटते ही आँखें गीली. नया हो या पुराना, छोटा हो या बड़ा सभी के दिल को छुआ था प्राजी ने. हमने जैसे नाटक समाप्त किया, सब अस्पताल की ओर भागे. अगली सुबह मेरे एक साथी ने मुझे थोड़ा विश्राम दिया ताकि मैं घर जाकर कपडे बदल लूँ. मैं जैसे ही घर से अस्पताल की ओर निकला, खबर आई की प्राजी चोला छोड़ चुके है. हाथ से फ़ोन गिर पड़ा, समझ नहीं आया क्या करूँ. आनन-फानन में मैं अस्पताल पहुँचा, प्राजी का निर्जीव शरीर मोर्ग में रखवाया, फिर उसको काबुलीवाले गुरूद्वारे ले गए, और फिर शमशान घाट. प्राजी का शरीर अपनी आँखों के सामने पंचतत्व में विलीन होते और सबकी आँखों को नम देखा. मैं तो वहाँ से आना ही नहीं चाहता था, पर मजबूरी थी.

वहाँ गिन्नी के पिताजी से मुलाकात हुई, जिन्होंने इस पूरे घटनाक्रम के दौरान एक भी आँसूं नहीं बहाया था. वो बहुत ही शक्ति के साथ इस परिस्थिति को संभालने का प्रयास कर रहे थे, या कहीं न कहीं ये ग़म इतने गहरे तरीके से उनके साथ जुड़ गया था, की आँसूं की जब्त हो गए थे. इस शेर को सलाम.

एक साल बाद उसकी बरसी पर जब वो पुराने दिनों की तसवीरें दिखाई गयी और जब मुझे अरविन्द सर ने ये परिभाषित करके बुलाया की 'अस्मिता में गिन्नी के सबसे करीबी दोस्त अमित शुक्ला' और मुझे उस अद्भुत इंसान के बारे में कुछ कहने को और अपनी यादें साझा करने को कहा,
'तब रोक न पाया मैं आँसू'

क्षमा चाहता हूँ की मेरे पास उसकी बरसी से जुडी कोई तस्वीरें नहीं है

Friday 25 July 2014

रिश्तों का धागा नाज़ुक होता है!


रिश्ता, एक ऐसा शब्द जिसके साथ हम माँ की कोख में आने के साथ से ही जुड़ जाते है. हर कोई अपने हिसाब से हमसे रिश्ते जोड़ लेता है. गर आप अपने माँ-पिता की पहली संतान होते है तो कोई खुद को मामा,बुआ, मौसी और ना जाने कितने रिश्तों से आपके साथ वास्ता बना लेता है और उसकी ख़ुशी में ही खुश होता है की बहुत जल्द आप माँ की कोख से निकलकर उनके हाथों में खेलेंगे. गर आप पहली नहीं होते है तो इंसान के शब्द होते है,'देखो तुम्हारा छोटा भाई/बहन आ रहा/रही है'. हालांकि हम जिस समाज में रहते है वहाँ पर बहन शब्द बहुत कम ही माताएँ या उनके परिवार वाले बोलते है, पर सच यही है की अगर लड़कियां नहीं या कम होंगी तो एक असंतुलन की स्थिति बन जाएगी जो बहुत भयानक परिणाम देगी.



और फिर आप इस दुनिया में आ जाते है. आपके कारण आपकी माँ ने जो कष्ट सहा होता है उसको शब्दों में बयान करना असंभव है. मगर इस सारे दर्द के बावजूद वो आपको इस दुनिया में लाती है, इस ख़ुशी से की उन्होंने एक नन्ही जान को दुनिया देखने का पुनीत कार्य किया है, वो बेहद खुश होती है. फिर उनके सपने,आशाएँ,उम्मीदें सब आपसे जुड़ जाता है.


चूँकि उस पल आप केवल रोने की भाषा ही जानते है और अपनी बात मनवानी हो या खुद को राजा साबित करवाना हो तो ये ही आपका हथियार होता है. आपका रोना उन्हें बेचैन कर देता है, चाहे आपको दूध पीना हो, या पालने में आपके द्वारा पेशाब हो, आप सब भावनाओ की अभिव्यक्ति सिर्फ रोकर ही करते है. आपके रोने की आवाज़ सुनकर पूरा घर आपकी सेवा में तत्पर हो जाता है. कोई आपको गोद में उठा लेता है, गीत गुनगुनाने लगता है, कोई आपसे बाते करने लगता है, और आपके हर पल बदलते हावभाव से आपकी मनःस्थिति को समझने की कोशिश करता है, या यूँ महसूस करता है की जैसे आप उनकी बातों का जवाब दे रहे है. आपकी बड़ी होती आँखें, कभी सिकुड़ती आँखें, कभी वो नाज़ुक से हाथ जो भींच लेते है आप, या उनकी ऊँगली पकड़ लेते है. वो कभी आपको तोतली सी आवाज़ में सम्बोधित करने लगते है, कभी कहते है,'मेला लाजा बाबू/गुड़िया रानी घुम्मी करने चलेगा/चलेगी' या फिर आपको सुलाने के लिए लोरी सुनाते है, जैसे की 'आ जाओ, आ जाओ, निन्नी निन्नी आ जाओ, बउवा/बिटिया का सुला जाओ' या फिर 'चंदा,घुप्प', और ना जाने क्या क्या माहौल होते है. रात में भी आपके पहरेदार बनकर सब सोते है, क्यूंकि जब दुनिया सोती है, तब आपका जागने का समय होता है.


धीरे धीरे आप समय के साथ बढ़ते चले जाते है, आपका दायरा घर से बढ़कर, विध्यालय तक पहुंच जाता है. आपका वो सुबह सुबह उठने के लिए मना करना, वो मम्मी/पापा का आपसे पहले उठना, आपके लिए खाना बनाना, आपको नहलाना, कपडे पहनाना. आपका दूध को लेकर नखरे करना, पर बोर्नवीटा या हॉर्लिक्स मिलाते ही उसको चट कर जाना. वो आपको घर से बस के पॉइंट तक छोड़ने आना, आपको हाथ हिलाकर टाटा करना, और फिर आपको वापस लेने जाना. इस बीच आपकी सलामती की दुआ करना.



पर जैसे जैसे वक़्त बदलता जाता है, हम सब अपनी ज़िन्दगी में इतने खो जाते है की ये भूल जाते है, की हमारे भी माँ-बाप है,और जैसे जैसे हम बड़े होते जा रहे है, वो बूढ़े हो रहे है. कहाँ एक समय वो माँ-बाप का आपकी छोटी सी शरारतों को देखना और खुश होना और सवालों का जवाब देना, कहाँ आज आपका उनका तिरस्कार करना और हर सवाल को खुद पर पाबंदी की तरह से लेना. कभी आपका अपने भाइयों से बचपन में प्रेम होना, कहाँ बड़े होते ही प्रॉपर्टी/पारस्परिक मनमुटाव के नाम पर एक दूसरे के गले काटने को तैयार होना. कहाँ एक समय वो एक दूसरे का लोगों से परिचय करवाना, कहाँ आज खुद की पहचान को भी खोजते रहना.


शायद कहीं ना कहीं हम वक़्त के साथ ये भूल चुके है, की ज़िन्दगी का आधार रिश्ते है. हम पैसे की चमक धमक और इस शोर-शराबे में ज़िन्दगी का असली सबक भूलते जा रहे है. वो सबक जो शायद कहीं ना कहीं हम सबको बचपन में बताया जाता है, सिखाया जाता है. पर जैसे जैसे हम मॉडर्न होते जा रहे है, अपनों से कहीं ना कहीं दूर होते जा रहे है. कहीं ना कहीं हम इसके लिए बदलते समय और दिनचर्या को ज़िम्मेदार मानते है, मगर असलियत ये है की हम सब कहीं ना कहीं सिकुड़ से रहे है. खुद के घोसलों में, अपने शंखों में, अपने कूबड़ में, हमारे लिए अब रिश्तों का मतलब 'वसुधैव कुटुम्बकम' से 'मैं भला, मेरा घर भला' में परिवर्तित हो गया है.

शायद हमें सोचने और समझने की ज़रुरत है,की हमसब की ज़िन्दगी एक पेड़ के तने की तरह है, जिसकी जड़ रिश्ते है. इस तने से जुडी हुई कई डालियाँ है, जो हमारे रिश्तेदार है, पहली दाहिनी डाली है माँ की, बायीं डाली है पिता की, उससे अगली भाई-बहन और आगे की डालियाँ है हमारे बाकी रिश्तेदार, जैसे की मामा,बुआ,मौसी,दादी इत्यादि इत्यादि मगर इन सब रिश्तो को ताकत मिलती है जड़ से, जो की है रिश्ते. अगर जड़ यानी की रिश्ते खराब हो जाए, तो क्या डालियाँ और क्या तना, सब कुछ सूख जाएगा और मुरझा जाएगा और अंततः भूमिगत हो जाएगा. इस जड़ को हमेशा उसकी ज़रूरी खाद और पानी देते रहिए, एक दूसरे के साथ वक़्त बिताकर,उनका हालचाल लेकर. शायद इसलिए रहीम साहब ने बड़ी बढ़िया बात कही है:

रहिमन धागा प्रेम का,मत तोरो चटकाए,
तोरे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाठ पड़ जाए,

Thursday 24 July 2014

डर वहम में बदल जाता है!

इस ब्लॉग को लिखने से पहले मैं सोच रहा था की क्या ये ब्लॉग लिखूं या नहीं? क्या वाकई में इस ब्लॉग की ज़रुरत है, पर फिर अंदर से उठती हुई आवाज़ को सुना और सोचा की केवल मैं ही नहीं हम सब ऐसे अनुभव करते होंगे, और वैसे भी ये ब्लॉग है जहाँ पर मैं अपनी भावनाएँ रख सकूँ. बड़ी हिम्मत करते हुए मैंने इस ब्लॉग को लिखना शुरू किया.

बात दरअसल २ दिन पुरानी है, यानी २२ जुलाई की. रात में घर पहुँचकर मैंने जैसे ही टी.वी. खोला तो बस मेरे प्रभु श्री अमिताभ बच्चन जी का नाटक 'युद्ध' शुरू ही होने वाला था. खबर अच्छी थी, क्यूंकि मैं समय पर घर पहुँचा था, और फिर मेरे टी.वी. की स्क्रीन का साइज ७० मम हो गया, क्यूँकि बच्चन साहब जो आ चुके थे. पूरी तल्लीनता से मैंने नाटक देखा, इस दौरान इस बात से बेखबर की रात चढ़ आई है और खाने के साधन भी कम हो चुके है. रात ११:३० बजे जैसे ही नाटक ख़त्म हुआ और मेरी चेतना वापस आई (क्यूँकि बच्चन साहब को देखते वक़्त मैं खुद को, और अपने आस पास को जैसे भूल सा गया था), मैंने खाना खाने के लिए घर से बाहर प्रस्थान किया. पहले पहल ये सोचा की पैक करवाकर घर पर कुछ ले आता हूँ, मगर इस ख्याल से ऊपर आया वो ख्याल जिसने मुझे वही पर जाकर खाने को प्रेरित किया. खैर मैंने भी इसे ही सही समझा और घर से कदम ढ़ाबे की ओर चल पड़े. वहां पहुँचकर मैंने भोजन किया और अपने घर की ओर चल पड़ा.

घर पहुँचकर पता चला की हमारे एरिया की लाइट काट दी गयी है, वैसे ये कोई नयी बात तो थी नहीं, सो हलके हलके कदमो के साथ मैंने घर का दरवाज़ा खोला. मुझे ऐसा लगा जैसे कोई मुझे छूकर अंदर गया है. एक पल के लिए तो मैं सिहर उठा. मगर हमेशा से नास्तिक होने के कारण ऐसी किसी भी चीज़ पर यकीन करना नामुमकिन था, सो मैंने दरवाज़ा बंद किया और अपने कमरे का दरवाज़ा खोला, फिर वही एहसास. न जाने फिर क्यों मुझे बार बार ऐसा एहसास हो जैसे मेरे कमरे के दरवाज़े पर कोई खड़ा है, या मुझे देख रहा है, यकीन मानिए ऐसा सोचते ही मैं खुद सिहर जाता था, समझ नहीं आता था की आखिर हुआ क्या? मैं चाट पर पहुँचा और चुपचाप सो गया. सुबह के साथ एक नयी ख़ुशी ने मेरा स्वागत किया.

मगर ये तो सिर्फ आधी कहानी थी, कल शाम को जब मैं घर पहुँचा तो करीब ९ बज चुके थे, मैंने टी.वी. खोली और अपना फेवरेट डब्लू.डब्लू.ई. देखने लगा, इसी दौरान मेरी नज़र घर की खिड़की पर पड़ी जो बालकनी में खुलती थी, वहां पर मुझे एक इंसाननुमा आकृति दिखाई दी, बिलकुल वैसा ही चेहरे का आकार, गर्दन, और हाथ को तानकर बांधे हुए एक इंसान की आकृति. पहले पहल मुझे लगा की सामने या आस पास के किसी मकान के बरामदे में कोई खड़ा होगा, शायद इसलिए ऐसी आकृति आ रही होगी, मगर उस आकृति ने अपनी जगह तब तक नहीं छोड़ी जबतक मैं खुद वहां नहीं पहुँच गया तो उसने मेरे मन में अजीब से सवाल खड़े कर दिए. पहले पहल मुझे ऐसा लगा की ये कोई वहम ही होगा, मगर वो आकृति, वो एहसास जैसे की किसी ने आपको छुआ है मेरे मन में सवाल ज़रूर खड़े करता है, मगर भूत-प्रेत या कुछ और को मानने के लिए अभी भी मैं तैयार नहीं हूँ. मैंने अपने एक मित्र से बात की उसने बताया की हो सकता है की कुछ हो ही, इसलिए आप 'हनुमान जी' की मूर्ति या चालीसा घर में रख लीजिए.

बताइए एक नास्तिक से भगवान की बातें? मैंने भी कह दिया की मरना पसंद है,मगर जिस चीज़ के अस्तित्व को आजतक नहीं माना उसे मरते दम तक नहीं मानूंगा. ये तो वही बात हो गयी की जब शहीद भगत सिंह जी को फाँसी दी जाने वाली थी, तो उनसे कहा गया की अब तो अरदास कर लो, तो उनका जवाब मुझे आज भी प्रेरित करता है, की 'जब मैंने आज तक उसके अस्तित्व को नाकारा है, तो आज जब मैं अंत के निकट हूँ, इसलिए मैं उसका ध्यान कर लूँ, ये कायरता होगी'

मैं स्वयं की तुलना उस महान बलिदानी से नहीं कर रहा, मगर मैं उसका अस्तित्व कभी भी नहीं मान पाऊँगा.

Wednesday 23 July 2014

क्या हम अपने लक्ष्य की ओर है चलते?


हम सब अपने जीवन में किसी न किसी लक्ष्य को लेकर ही जीवन में कदम बढ़ाते है. कुछ हम खुद बनाते है, कुछ हमारे अपने हमारे लिए बना देते है. कुछ लक्ष्य ऐसे होते है, जिनके लिए हम हर पल हर क्षण मेहनत कर रहे होते है, कुछ ऐसे भी होते जिनके लिए हम ज़िन्दगी भर प्रयास करते रहते है, मगर अंत समय तक वो हमसे दूर ही रहते है.

क्या वाकई में अपने लक्ष्य को पाना इतना मुश्किल है? क्या लक्ष्य सिर्फ कोरी किताब के कागज़ों में लिखी कुछ शब्दों की बनावट है, जो वाकई में कभी हासिल नहीं होते? वास्तव में ऐसा नहीं है. लक्ष्य वो है जो हमें रास्ता देते है, जो हमें रात और दिन अथक श्रम करने की प्रेरणा देते है, और हमें अपना सर्वस्व न्योछावर करने को प्रेरित करते है. मैं अगर अपनी ज़िन्दगी के लम्हे को ही बताऊँ तो वो भी कुछ ऐसा ही है. आप सबको याद तो होगा ही मेरा वो ब्लॉग जो मैंने थिएटर से जुडी अपनी यात्रा पर लिखा था. उस क्षण मैं अपने लक्ष्य की ओर बिलकुल प्रेरित था, पूरी तरह समर्पित, हर चीज़ को त्यागकर बस थिएटर को पाने की चाह रखता था, पर जैसे जैसे अन्य ज़िम्मेदारियों ने, यानी नौकरी की ज़िम्मेदारियों ने मुझपर अपना प्रभाव डाला, मैं उतना समय थिएटर और अभिनय को नहीं दे पाया. उसका खामियाज़ा भी मुझको ही हुआ, क्यूंकि जो मित्र लगातार और पूरा समय दे पा रहे थे, वे आगे बढे, और मैं पीछे रह गया.
यहाँ मैं कोई कुंठा व्यक्त नहीं कर रहा, कोई निराशा भी नहीं, या किसी व्यक्ति अथवा संस्था/ग्रुप पर कोई प्रश्न नहीं खड़े कर रहा. मैं तो यहाँ पर बस ये बताने की कोशिश कर रहा हूँ की जैसे हम अपने लक्ष्य को कम समय देना शुरू करते है या अपना ध्यान भटका लेते है, फिर चाहे वो अपने व्यसनों के कारण हो या ज़िम्मेदारियों के, हम अपने लक्ष्य से भटकते जाते है.

मैं आज की तारीख में बस ये सोचता हूँ की कोई ऐसा साधन हो सके ताकि मैं अपने व्यय तथा ज़िम्मेदारियों से जुड़ा धन अर्जित कर सकूँ तो शायद मैं इस नौकरी के झंझावात से सदा सदा के लिए मुक्त ही हो जाऊँ और थिएटर तथा अभिनय को और समय दे सकूँ और अपने लक्ष्य की ओर जा सकूँ.


आशा है आप सब भी अपने लक्ष्य को पाने का प्रयास करेंगे, न की सामने आई मुश्किलों के सामने घुटने टेक देंगे.


मुश्किल कितनी भी बड़ी हो, आपकी हिम्मत और जज़्बे के आगे कुछ नहीं


Tuesday 22 July 2014

लिखते लिखते कहीं रुक गया मैं!

सुबह से ही सोच रहा था, की लिखूँगा आज मैं पर ना जाने क्या हुआ आज हाथों ने जैसे कीबोर्ड की ओर जाने से इंकार कर दिया. कारण शायद ये था की मैंने बातों बातों में ही कुछ ऐसा पढ़ लिया जिसे समझने की कोशिश अभी भी कर रहा हूँ. अभी भी मैं ये सोच रहा हूँ की इन शब्दों को क्या कहूँ, 'क्या भूलूँ क्या याद करूँ', मगर वाकई में आज ये दो कविताएँ कुछ ऐसी पढ़ी डॉ हरिवंश राय बच्चन जी की, की जैसे लगा मैं भला अपने जीवन में क्या लिख पाऊँगा, क्या समझ पाऊँगा, कुछ समझने की और कहने की शक्ति जैसे क्षीण सी हो रही थी. इसलिए आपको भी उन कविताओं का रस पान करा देता हूँ, जिनके रस से मैं आज सराबोर हो उठा हूँ, और अब तक उसके नशे में झूम रहा हूँ. ये दोनों ही कविताएँ मेरे दिल के करीब है:

क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?

क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?

मैं दुखी जब-जब हुआ
संवेदना तुमने दिखाई,
मैं कृतज्ञ हुआ हमेशा,
रीति दोनो ने निभाई,
किन्तु इस आभार का अब
हो उठा है बोझ भारी;
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?

एक भी उच्छ्वास मेरा
हो सका किस दिन तुम्हारा?
उस नयन से बह सकी कब
इस नयन की अश्रु-धारा?
सत्य को मूंदे रहेगी
शब्द की कब तक पिटारी?
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?

कौन है जो दूसरों को
दु:ख अपना दे सकेगा?
कौन है जो दूसरे से
दु:ख उसका ले सकेगा?
क्यों हमारे बीच धोखे
का रहे व्यापार जारी?
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?

क्यों न हम लें मान, हम हैं
चल रहे ऐसी डगर पर,
हर पथिक जिस पर अकेला,
दुख नहीं बँटते परस्पर,
दूसरों की वेदना में
वेदना जो है दिखाता,
वेदना से मुक्ति का निज
हर्ष केवल वह छिपाता;
तुम दुखी हो तो सुखी मैं
विश्व का अभिशाप भारी!
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?

-डा. हरिवंशराय बच्चन

और दूसरी कविता है:

यहाँ सब कुछ बिकता है , दोस्तों रहना जरा संभाल के !!!

बेचने वाले हवा भी बेच देते है , गुब्बारों में डाल के !!!
सच बिकता है , झूट बिकता है, बिकती है हर कहानी !!!
तीन लोक में फेला है , फिर भी बिकता है बोतल में पानी!!!
कभी फूलों की तरह मत जीना,
जिस दिन खिलोगे... टूट कर बिखर्र जाओगे ।
जीना है तो पत्थर की तरह जियो;
जिस दिन तराशे गए... "खुदा" बन जाओगे ।।

-डा. हरिवंशराय बच्चन

आशा है आपको पसंद आएँगी

Monday 21 July 2014

एक दिन की यात्रा


एक नया दिन आता है, अपने साथ नयी उम्मीदें लाता है, नयी सुबह, नयी सोच, नए नज़रिए, नयी चुनौतियाँ और ये सब शायद इसलिए ताकि हम खुद को और बेहतर बना सके, एक और चरण ऊपर की ओर जा सके. वैसे देखा जाए तो ये प्रक्रिया ज़रूरी भी है, क्यूँकि जब तक आप स्वयं को कल से बेहतर नहीं करेंगे, तो फिर आपका विकास कैसे होगा.

अगर एक दिन की यात्रा को देखा और समझा जाए, तो हमें अपनी उन्नति का एहसास होगा. हर दिन में हमें एक नयी सीख मिलती है, एक नए आयाम से रूबरू होते है जो हमें इस बात का एहसास दिलाता है की हम कितने विशिष्ट है. इस बात पर मुझे हृषिकेश मुख़र्जी जी की 'बावर्ची' फिल्म का वो गीत याद आता है


इस गीत में जितने प्यार से बड़ो की इज़्ज़त करना, दिन का स्वागत करना और न जाने क्या क्या सीख दी गयी है. वो अद्भुत है. वैसे भी ऐसा कमाल सिर्फ हृषि दा ही कर सकते है. एक नए दिन में कहीं न कहीं पिछले दिन को परास्त करने की विजय का शोर भी होता है, वो ख़ुशी भी होती है, जो इस बात का प्रतीक होती है की एक नया दिन आ गया. वो चिड़ियों का मधुर गीत गुनगुनाना, जिसे हम चहकना कहते है, वो प्यार जो सुबह सुबह की किरणे हम पर बरसाती है, शायद कहीं न कहीं ये समझाने के लिए, की एक नया दिन आया है, अपने साथ नयी उम्मीदों का सूरज लाया है, और हमें जगाता है ताकि हम अपने पुरुषार्थ से उस दिन एक नयी कहानी लिख दे, कहानी अपनी जीत की, अपनी लड़ाई की, अपने सपनो की ओर भागने के जद्दोजहद की.



शायद इतने सारे नए मुकाम और मायने है इस एक यात्रा के की जिसे मैं अकेला नहीं लिख सकता. आप सब भी बताए की आप एक नए दिन से क्या उम्मीद लगाकर बिस्तर से उठते है. आपके जवाबों का कमेंट्स के रूप में अभिलाषी!

Sunday 20 July 2014

विज्ञापन समझ में नहीं आते और सपने है बेचे जाते

आज कल चीज़ों को बेचने का कुछ ऐसा चलन है की इंसान कुछ भी और कभी भी बेच सकता है. देखिये ना एक इंसान जो खुद कभी अभिनय नहीं कर सके वो 'बड़े आराम से' चोरों को भगा रहे है, मगर जहाँ तक मेरी नज़र जाती है वो तो एक बनियान का विज्ञापन कर रहे होते है, और इस शब्द के साथ साथ उस विज्ञापन का कोई मेल तो नहीं दिखता, मगर ये तो नया ज़माना है साहब, यहाँ कुछ भी और कैसे भी बेचा जा सकता है.


ये भी क्या कुछ कम थे साहब, एक एड में तो एक इंसान कच्छे में स्विमिंग पूल से गुज़र रहा है और वहाँ पर बैठी सारी लड़कियाँ अजीब सी आवाज़ें निकलने लगती है, और बर्फ पिघलने लगती है, लड़कियों को गर्मी महसूस होने लगती है, समझ नहीं आता की वो डिओ का एड है या किसी और चीज़ का. वैसे भी औरतों को कामोत्तेजना या कामोत्तेजक वस्तु के रूप में दिखाना क्या एक सही चीज़ है? आप आखिरकार उस विज्ञापन से दिखाना क्या चाहते है, ये तो स्पष्ट कीजिए.


इससे भी एक कदम आगे चलिए तो एक्स का एड देखिये, जहाँ पर आपने इधर डिओ लगाया, उधर लड़कियाँ आपपर टूटने लगती है,ये क्या मूर्खता है.


इतने नामी गिरामी इंसान होने के बावजूद ना जाने अक्षय कुमार जैसे लोगों को ऐसे उलटे सीधे एड्स करने की क्या ज़रुरत है, या फिर, सनी प्राजी को, या लेओन को. कुछ एड तो कच्छा प्रमोट करने के लिए भी ऐसी हरकते है जो समझ से परे है. डिओ हो या पेन, अगर सही मायनो में देखा जाए तो इन विज्ञापनों में सपनो को बेचा जाता है, फिर चाहे वो आपको एकदम से अमीर बनाने वाले नाटको के विज्ञापन ही क्यों ना हो. घरों के सपने बेचने हो, या अच्छे कपड़ो के, या कीटनाशक का विज्ञापन, हर तरफ सपनो को बेचा जाता है, और एक दर्शक वर्ग  है जो इसको हकीकत से जोड़ देते है, हालाँकि कुछ विज्ञापन समझ में नहीं आते,जैसे वो जिनके वीडियो मैंने शेयर किए. 

वैसे ये कहना गलत नहीं होगा की आजकल की पीढ़ी कुछ ऐसे ही एड्स में विश्वास करती है,उसको लगता है की ये हकीकत है. आजकल का ज़माना वैसे भी चीज़ों को महिमांडित करके पेश करने का है, फिर चाहे वो सुई हो या कार. तभी तो देखिये की घर के एड में बैंक की ई.एम.आई. का डर दिखाया जाता है, या फिर सपनो का घर,लम्हे या ऐसा ही कुछ दिखाकर इंसान को हमेशा डराया या लुभाया जाता है.

आशा है की विज्ञापन करने वाले और इनको बनाने वाले यथार्थ के धरातल पर विज्ञापन बनाएंगे, तो हम सब पर बड़ी मेहरबानी होगी.

Saturday 19 July 2014

ब्लॉग लिखना भी एक नशा है


ब्लॉग, एक ऐसी जगह जहाँ आप अपनी भावनाओ को लोगो के साथ बाँटते है. आपकी एक ऐसी दुनिया जो आपको लिखने की आज़ादी देती है,सोच को शब्द में बदल देती है, और आप एक भावना से सराबोर होकर लिखते है. वैसे तो मैंने लगातार लिखना ३ दिन पहले ही शुरू किया है, मगर अब ऐसा लगता है की जैसे ये कोई नशा है, और इस नशे में इतनी हिम्मत है की अगर आपको अपने आगोश में ले ले, तो इसके मोहपाश से निकलने का कोई रास्ता नहीं है.

पहले पहल जब मैंने ब्लॉग शुरू किया था, तो मैं भी यही सोचता था, की जब समय मिला तब ब्लॉग लिख दिया करेंगे. वैसे भी ये कोई स्कूल या ऑफिस तो है नहीं जहाँ आपको डेली प्रेसेंंट होना चाहिए, और यकीन मानिए जबसे ब्लॉग शुरू किया था, यही आदत अंदर शुमार थी, की जब वक़्त मिला तो ब्लॉग ज़रूर लिख दिया जाएगा, मगर ऐसा समय कभी आया ही नहीं, और जब आया भी तो महीनो महीनो के बाद, कभी तो साल के एक महीने में हरियाली होती थी,और फिर सूखा.


मगर ३ दिन पहले ना जाने क्या हुआ की मेरे अंदर लगातार लिखने की इच्छा जाग उठी. मैंने भी इसका समर्थन किया, आखिर लिखना भी तो एक कला है, और इसको समझना भी. शुरुवात में तो मुझे एक मज़ाक सा लगा, मगर पिछले ३ दिनों से मैं लगातार लिख रहा हूँ. लिखते वक़्त लगता है जैसे मैं अपने आप को अच्छे से व्यक्त कर पा रहा हूँ. इस चीज़ ने मुझे बहुत उत्साहित किया, पहले मुझे लगा की अंग्रेजी में लिखूँ,लिखने में कोई दिक्कत भी नहीं है, क्यूँकि मुझे अंग्रेजी में लिखना आता है, पर फिर ऐसा लगा की शायद मैं हिंदी में अपनी बात और बेहतर तरीके से लोगों से कर सकता हूँ, और तब से लेकर सारे ब्लॉग्स हिंदी में ही है.


कभी कभी सोचता हूँ की अंग्रेजी में भी लिखने लगूँ, अगर और कुछ नहीं तो अपने हिंदी ब्लॉग का अंग्रेजी में अनुवाद कर दूँ ताकि मेरे अंग्रेजी भासी दोस्त भी पढ़ सके. खैर अभी वो ख्याल सिर्फ एक ख्याल ही है, बाकी आगे देखेंगे.एक साथ ३ ब्लॉग लिखना आसान काम तो है नहीं, मगर मेरा पूरा प्रयास है की मैं तीनो को लगातार लिखूँ, ताकि मैं अपनी भावनाओं को और अच्छे से लिखकर व्यक्त कर सकूँ. आज जब ब्लॉग नहीं लिख पाया तो अंदर से कहीं कुछ कचोट सा रहा था, की तुम अपना ब्लॉग नहीं लिख सके, एक अजीब सा खालीपन महसूस हो रहा था,तभी अंदर से एक आवाज़ आई,'ब्लॉग लिखना भी एक नशा है', और मैंने कहा वाह आज के ब्लॉग के लिए कितना खूबसूरत टाइटल मिल गया, फिर कुछ देर बाद अपने विचारों को लिखना शुरू किया.

अब शायद मैं ये समझ पाया हूँ, की मेरे प्रभु श्री अमिताभ बच्चन जी प्रतिदिन ब्लॉग कैसे लिख पाते है, क्यूँकि उनपर भी इसका नशा चढ़ चुका है, वैसे सारे नशे बुरे नहीं होते.

Friday 18 July 2014

बरसो रे मेघा बरसो





जून और जुलाई की चिलचिलाती हुई गर्मी के असर से हर इंसान त्राहि-मामि करता है. इस ताप से बचने के लिए घर में रहने वाले लोग कूलर या ए.सी. का इस्तेमाल करते हैं तो वही रास्तों पर विचरते प्राणी पानी या फिर आइसक्रीम वालो की मदद से इस चढ़ते हुए पारे के ताप को कम करने का प्रयास करते है, और हर क्षण यही प्रार्थना करते है अपने उस 'तथाकथित भगवान' से की बरसात कर दो. पर क्या करें साहब उस 'तथाकथित भगवान' को भी तो अपील्स की आदत है, और जब इतने सारे लोग उसको अपील करने लगे तो वो भी आखिर अपने 'तथाकथित पानी के नल' खोल देता है. कुछ वैसा ही कल भी हुआ, जब सुबह तक बारिश के कोई आसार न थे, और लोग अपनी दिनचर्या में व्यस्त थे, कोई ऑफिस पहुँचने की कोशिश कर रहा था, कोई बच्चों को स्कूल भेजकर, अपने घरों के काम में लगा हुआ था, तो वही आज कल की युवा पीढ़ी अपने सपनो को पाने की कोशिश में बाहर थी, ठीक इसी तरह हर कोई अपने-अपने काम में व्यस्त था.


इसी बीच घुमड़ते हुए मेघा ने अपनी दस्तक दी, जो बाहर थे उन्हे इसकी दस्तक सुनाई दे गयी, जो नही थे,हमारे जैसे, उन्होने लोगों की बातों से कुछ देर बाद में सूचना पाई. खैर शाम हुई और हमने ऑफिस से छुट्टी पाते ही इस अद्भुत मौसम का लुत्फ़ उठाया। चूँकि हम सब अपनी यात्रा में कहीं न कहीं आगे बढ़ने को आतुर थे, सो हमने भी कदम आगे बढ़ाने की कोशिश की कि तभी मुझे दो 'तथाकथित भगवान' भक्तों के स्वर सुनाई दिए. एक ने कहा,'भगवान ने बहुत अच्छा किया कि बरसात कर दी', तो वहीँ दूसरे ने कहा 'क्या यार, ये भगवान भी १० मिनट बाद नहीं बरस सकता था, कम से कम मैं अपने घर पहुंच जाता'. पहले वाले के बारे में मैं कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता, मगर दूसरे वाले कि बात सुनते ही मुझे ज़ोर की हँसी आ गयी, यूँ लगा जैसे उसके 'तथाकथित भगवान' को उसकी अनुमति लेकर ये बरसात करनी चाहिए. वैसे ऐसे भक्तों के लिए वो तभी तक भगवान है, जब तक वो उनके मन की चीज़ करता है, वरना वो गलत है.

खैर ऐसे लोगों की बात को मैं तवज्जो नहीं देता जो इस प्रकार की घटिया सोच रखते है. ये शब्द सुनकर मुझे अपने 'नास्तिक' होने पर ख़ुशी महसूस हुई, लेकिन बरखा ने कहाँ मेरे लिए रुक जाना था, सो मैंने भी मौसम का आनंद लेते हुए आगे बढ़ना शुरू किया. आगे कुछ ही दूरी पर गया था, की घनघोर वर्षा होने लग गयी. मैंने पास के ही छाँव ली, ताकि भीगने से बच सकूँ. मैं तो कहूँगा की ये मौसम बहुत देर से आया, इसकी दरकार कितने समय से किसान को थी, वो किसान जो आज भी परेशानियों से घिरा हुआ है, जो सूखा पड़ने के कारण आत्महत्या कर रहा है. वो किसान जो अपनी ज़िन्दगी को बचाने के लिए दर-दर का मोहताज है. वो किसान जो हमारे पेटों तक पहुँचने वाला अन्न पैदा करता है, जिसको ये बड़े मिल वाले, बड़े नाम और दाम पर बेचकर अपनी तिजोरियाँ भरते है और वो गरीब बेचारा फसल के पैसे कमा कर संतोष कर लेता है. इस सोच के सागर में डूबा ही था, की एक बच्ची की आवाज़ से मैं वापस किनारे पर आया. पहले लगा की शायद मेरी आँखों से जो बह रहा है, वो बारिश का पानी है, पर फिर समझ में आया की मैं कितना डूब गया था इस ख्याल में, क्यूँकि वो बारिश का पानी नही था.









वापस होश में आते ही, मैंने अपने चारो ओर नज़र दौड़ाई तो लोगों का एक हुजूम देखा, युवक-युवतियों के जोड़े, परिवार,बुजुर्ग सब मेरे आस पास ही थे.धीरे धीरे अँधेरा होने लगा और लोग भीगते हुए आकर वहाँ पर शरण ले रहे थे. वहाँ एक अलग ही दुनिया बस चुकी थी, वहाँ माँ अपने बच्चे को बाहर हाथ निकालने से मना कर रही थी, तो वहीँ बच्चों की मासूम शरारतें, उनकी हँसी माहौल को और भी सुन्दर बना रही थी. वहाँ प्रेमी जोड़ो का बाहें डाले गाना गाना भी बहुत ही अच्छा लग रहा था. उसपर मेरी नज़र दो ऐसे बुज़ुर्गों पर पड़ी जो शायद शरीर से बुज़ुर्ग थे,दिल से नही, क्यूँकि दादाजी बच्चन साहब का 'आज रपट जाए तो हमें न उठइयो' गीत गुनगुना रहे थे, जो वहाँ खड़े हम सबको बहुत ही अच्छा लग रहा था, और इस अद्भुत माहौल में और भी अच्छा बना दिया एक बेहतरीन सी चाय ने, जिसकी चुस्कियां लेते हुए हम सब उस भीड़ में अपनी अपनी पहचान लिए हुए, इस बरसात का आनंद ले रहे थे. इस दौरान मुझे सिर्फ इस बात की चिंता थी की कहीं ये पानी कहीं मेरे कमरे में ना घुस जाए,पर घर पहुंचकर जब ये पता लगा की ऐसा कुछ नही हुआ, तो मुझे बहुत ही अच्छा महसूस हुआ.



मुझे इस बात का दुःख ज़रूर है की जहाँ दिल्ली में पानी की कमी रहती है, और इतनी बरसात हुई पर किसी ने भी रेन वाटर हार्वेस्टिंग के बारे में नही सोचा, क्यूँकि यदि हम ऐसा करते तो शायद पानी की समस्याओं से कुछ हद तक निजात तो पा ही सकते थे.